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देकार्त ने आत्मा को द्रव्य रूप कहा किन्तु द्रव्य रूप में सिद्ध नहीं कर सका। निष्कर्ष की भाषा में यही कह सकते हैं-देकार्त का आत्मवाद जैन आत्मवाद के काफी निकट है। उसने जो आत्म-प्रयोजन मूलक व्याख्या की, वह आत्मा की महत्ता की अभिव्यक्ति है।
ह्यूम (1711 ई. से 1776 ई.)
देकार्त ने सत्य तक पहुंचने का माध्यम संदेह को माना है। संदेह से ही आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया किन्तु संदेह को साधन रूप ही माना है, साध्य नहीं।
ह्यूम के दर्शन में संदेह साधन और साध्य दोनों है। देकार्त संदेह से सत्य तक पहुंचता है। ह्यूम का दर्शन संदेह से प्रारंभ होता है और अंत भी उसी में हो जाता है।
बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया स्वरूप अनुभववाद आया। उसका जन्मदाता था 'जान लॉक'। विशप बर्कले ने उसे आगे बढ़ाया। ह्यूम का अभिमत अलग है। उसने कहा- यदि हम अनुभव को ही ज्ञान का साधन स्वीकार करलें तो आत्मा, परमात्मा आदि किसी की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। यद्यपि ज्ञान का एकमात्र स्रोत ह्यूम ने अनुभव को ही माना है फिर भी लॉक और वर्कले के अनुभववाद से ह्यूम का अनुभववाद भिन्न है।
ह्यूम को अज्ञेयवादी भी कहा जाता है। कारण उसने आत्मा-परमात्मा आदि तत्त्व अज्ञेय माने हैं। जिसको प्रत्यक्ष नहीं देख सकते, ऐसी वस्तु उसे मान्य नहीं।
जिन दार्शनिकों ने प्रतिक्षण आत्मा को जानने का दावा किया है और उसके लिये किसी प्रमाण की अपेक्षा नहीं समझते, ह्यूम ने उनके सामने प्रश्न खड़ा किया कि आपके पास आत्मा का प्रत्यय स्पष्ट है तो इसका आधार कोई संस्कार होना चाहिये, और आत्म द्रव्य का ज्ञान इन्द्रियानुभव संस्कार से होता है या मानसिक चिन्तन संस्कार से ?
यदि इन्द्रियों के अनुभव से है तो कौनसी इन्द्रिय इसमें निमित्त है ? यदि आंख माध्यम है तो रूप होना चाहिये। कान से जानते हैं तो ध्वनि होगी, इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों से। किन्तु कोई भी यह कहने का साहस नहीं करेगा कि आत्मा-रूप, रस, गंध और ध्वनि है। रूप, रस आदि इन्द्रियों के विषय हैं। आत्मा शब्दातीत, रूपातीत, गंधातीत, रसातीत है। इन्द्रियों से अप्रत्यक्ष है।
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन