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प्लेटो की आत्म-सम्बन्धी अवधारणा जैन दर्शन के समकक्ष ही है । आत्मा न हो तो पुनर्जन्म, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा की कल्पना भी निरर्थक है।
पाश्चात्य विचारकों ने ज्ञान के तीन स्तर माने हैं - ऐन्द्रिक अनुभवात्मक ज्ञान (Emparical Knowledge), बौद्धिक ज्ञान (Intellectual Knowledge), अन्तर आत्मज्ञान (Intutional Knowledge) । ऐन्द्रिक ज्ञान अनुभव सापेक्ष है। बौद्धिक ज्ञान अनुभव निरपेक्ष है। यह जन्म से आत्मा में विद्यमान रहता है। इसका कोई विपक्ष नहीं होता। जैसे
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त्रिभुज
समकोण
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त्रिभुज के तीनों कोण मिलकर दो समकोण के समान हैं। बौद्धिक ज्ञान का यह प्रतीक है। आत्मा के अभाव में इन ज्ञानों का आधार क्या होगा ? इस प्रश्न ने पश्चिमी दार्शनिकों के दृष्टिकोण को परिष्कृत किया है। भौतिक जगत से परे आत्मा के अस्तित्व को मान्यता मिली।
देकार्त (1556 ई. से 1650 ई.)
पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त (Descartes) ने आत्मा को आध्यात्मिक तत्त्व माना है। जिसका स्वभाविक गुण चिन्तन अथवा चेतन है । देकार्त संदेह से सत्य की खोज करते हैं। दार्शनिक चिंतन का आदि उत्स संदेह है। उनकी मान्यता थी कि संदेह से संदेहकर्ता के अस्तित्त्व की अनुभूति होती है, जैसे चिन्तन से चिन्तनकर्ता की।
देकार्त के आत्म-अस्तित्व को प्रमाणित करने वाला प्रसिद्ध सूत्र है‘Cogito ergo sum’ I think, therefore I am. मैं सोचता हूं इसलिये मेरा अस्तित्व है। ज्ञान आत्मा का गुण है, यह ज्ञाता के अभाव में संभव नहीं । ज्ञान और आत्मा में गुण-गुणी का सम्बन्ध है । चिंतन के अनेक पहलू हैं-संदेह करना, समझना, स्वीकार करना, कल्पना करना आदि ये सब मानसिक क्रियाएं हैं
पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान समन्वय की भूमिका
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