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२. इन्द्रियात्मवाद-इस सम्प्रदाय में इन्द्रिय ही आत्मा है। क्योंकि शरीर
आदि सभी इन्द्रियों के अधीन हैं। इनकी विद्यमानता में ही पदार्थों का
ज्ञान होता है। इससे इन्द्रिय ही आत्मा होने का सिद्ध होता है। ३. मानसात्मवाद- इसकी धारणा में मन आत्मा है। मन को छोड़कर कोई
ऐसा पदार्थ नहीं, जिसे आत्मा कहा जाये। मन की सक्रियता में ही इन्द्रिय काम करती है। अनुभूति भी मन को ही होती है अतः मन ही आत्मा है।
४. प्राणात्मवाद- कुछ चार्वाक प्राण को आत्मा मानते हैं। प्राण के अभाव
में इन्द्रियादि व्यर्थ हैं।
आस्तिक दर्शनों ने चार्वाक दर्शन का खण्डन इस आधार पर किया कि व्यवहार की सिद्धि केवल प्रत्यक्ष को मान लेने से नहीं होती। प्रत्यक्ष अकेला अधूरा है। प्रबल युक्तियों के सामने भूतात्मवाद निर्मूल हो जाता है क्योंकि इस मत में न धर्म का स्थान है, न पुण्य-पाप का। अनुमान और शब्द प्रमाण भी मान्य नहीं हैं। प्रमेय की सिद्धि केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से है। कार्य-कारण भाव स्वीकार्य नहीं। संसार की विभिन्नता नैसर्गिक है।
चार्वाक की इन अवधारणाओं में अनेक आपत्तियों का अवकाश है। जैसे१. शरीरात्मवादियों ने शरीर को आत्मा कहा है। विमर्शणीय है, भूतों से
चैतन्य की उत्पत्ति केवल काल्पनिक तथ्य है। भूत अचेतन है।७८ चार्वाक मधु आदि के दृष्टान्त से पुष्ट करते हैं किन्तु यह भी उचित नहीं। मदिरा के प्रत्येक घटक में मादकता रहती है लेकिन प्रत्येक भूत में चैतन्यता देखी नहीं जाती। यदि शरीर आत्मा है, सुखादि उसके धर्म हैं, तो मृत शरीर में भी रूपादि गुणों की तरह चेतना होनी चाहिये। किन्तु ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता।
अतः सिद्ध है-चैतन्य शरीर का धर्म नहीं। २. इन्द्रियात्मवादियों ने इन्द्रियों को आत्मा माना, यह भी तर्कसिद्ध नहीं
है। चैतन्य को इन्द्रियों का गुण मानें तो चक्षु आदि इन्द्रियों के नष्ट होने पर न चैतन्य का नाश होता है, न स्मृति भी लुप्त होती है। इन्द्रियां ही आत्मा हैं तो कर्ता भी उन्हें मानना पड़ेगा, अन्यथा करण का अभाव हो जायेगा। करण के अभाव में कर्ता क्रिया कर नहीं सकेगा। इन्द्रियों के
आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा