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जैन दर्शन को कूटस्थ नित्यवाद स्वीकार नहीं । वह परिणामी नित्यवादी है । परिणामी नित्य का अर्थ है- पदार्थ उत्पाद - व्यय धर्मवाला है । ६५ जैन परम्परा में आत्मा की क्षमता समान होने पर भी पुरुषार्थ एवं निमित्त के आधार पर विकास की यात्रा चलती है। सांख्य दर्शन में बुद्धि तत्त्व के बल पर सब घटित होता है। बुद्धि तत्त्व सब जीवों में विद्यमान है किन्तु उसका विकास विवेक, पुरुषार्थ और अन्य निमित्तों पर अवलम्बित है। आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने से विभिन्न दोष आते हैं अतः आत्मा को परिणामी नित्य मान लेना ही श्रेयस्कर है।
मीमांसा दर्शन और जैन दर्शन
मीमांसा दर्शन में आत्मा सम्बन्धी धारणा न्याय-वैशेषिकों के समकक्ष ही है। इसमें आत्मा को नित्य, व्यापक, अनेक तथा शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि से भिन्न कहा है। वर्षों पूर्व दृष्ट और श्रुत विषयों की स्मृति, इन्द्रियों की विकलता में भी विद्यमान रहती है। इससे ज्ञात होता है कि इन्द्रियां केवल ज्ञान एवं अनुभूति का माध्यम हैं। ज्ञाता आत्मा है।
मीमांसक आत्मा में चित् अंश एवं अचित् अंश का संयोग मानते हैं। चित् अंश का ज्ञान से सम्बन्ध है । उसके द्वारा प्रत्येक आत्मा ज्ञाता - द्रष्टा रूप में ज्ञान का अनुभव करती है । अचित् अंश परिणाम का निमित्त है। सुख-दुःख, इच्छा, प्रयत्न आदि जिन्हें न्याय-वैशेषिक आत्मा के विशेष गुण स्वीकार करते हैं, वे अचित् अंश के ही परिणाम हैं । ६६
आत्मा के स्वरूप को लेकर मीमांसकों में मतभेद है। प्रभाकर न्यायवैशेषिक की तरह आत्मा को जड़वत् मानकर चैतन्य को उसका आगन्तुक गुण मानते हैं जो मन और इन्द्रियों का आत्मा से संपर्क होने पर उत्पन्न होता है।
कुमारिल भट्ट, न्याय-वैशेषिक, प्रभाकर की तरह आत्मा को न जड़वत् स्वीकार करता है, न जैन और सांख्य की तरह चैतन्य स्वरूप | बल्कि बोधाबोधात्मक स्वरूप मानता है। प्रभाकर आत्मा को अपरिणामी नित्य मानता है। कुमारिल भट्ट आत्मा को परिणामी नित्य ।
जैन-मीमांसक में कहीं सिद्धान्त भेद है तो कहीं समान रेखा पर भी हैं। जैनों ने आत्मा को परिणामी नित्य कहा तो मीमांसक कुमारिल भट्ट इससे सहमत हैं।६७ चैतन्य द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है किन्तु ज्ञान - विज्ञान की पर्याय बदलती है अतः इस अपेक्षा से अनित्य है । अर्थात् परिणमनशील होने पर भी आत्मा नित्य है। जैन दर्शन की तरह आत्मा ज्ञाता और ज्ञेय है। मृत्यु के बाद जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
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