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१. बौद्ध आत्मा को अनित्य मानते हैं । ऐसी स्थिति में कर्मवाद का सिद्धांत कैसे टिकेगा? कर्ता - भोक्ता में अन्तर होगा। अकृतागम, कृतप्रणाश दोषों से बच नहीं सकते।
इस तर्क का बौद्धों ने इस प्रकार समाधान दिया। कर्मवाद तीन जन्मों के परिवर्तन को मानता है । पूर्वजन्म से वर्तमान, वर्तमान से भविष्य प्रभावित होता है। इसलिये अतीत के संचित कर्म वर्तमान में, वर्तमान जन्म के कर्म भविष्य में, भोग हो जाते हैं। परिवर्तन मात्र मृत्यु के कारण नहीं, वह तो निरंतर चालू है । जैसे पूर्व क्षण से उत्तर क्षण सम्बन्धित है, वैसे ही पूर्वजन्म से उत्तर जन्म का सम्बन्ध है ।
२. आत्मा अनित्य है तो प्रत्यभिज्ञा कैसे संभव होगी ? बौद्धों का मानना है कि अतीत और वर्तमान दोनों ज्ञानों के बीच एकाकारता नहीं, समानता है। समानता के कारण पूर्व ज्ञान को उत्तर ज्ञान में अध्यारोपित कर देते हैं।
३. बौद्ध, जगत् के समस्त पदार्थों को क्षणिक मानते हैं, इससे तो व्यवहार और परमार्थ- दोनों की सिद्धि नहीं की जा सकती । ४६
वस्तुओं के क्षणिक होने से किसी क्षण की क्रिया फल दिये बिना ही अतीत के गर्भ में विलीन हो जाती है। इससे कृत प्रणाश आदि दोष आते हैं । ४७ जब प्राणियों के उत्तरदायित्व का ही अभाव है तब संसार की उत्पत्ति कैसे सिद्ध मानी जाये ? मोक्ष के सिद्धांत की भी हानि होती है ।
निमित्त और नैमेत्तिक सम्बन्ध भी नहीं बनता। हिंस्य-हिंसक, हिंसा, हिंसाफल का आधार क्या ? ४८ स्मृति और प्रत्यभिज्ञा भी असंभव है । जिस पूर्व क्षण में पदार्थ का अनुभव किया, वह नष्ट हो गया । उत्तर क्षण, जिसने पदार्थ को नहीं देखा, उसकी संस्कार के अभाव में स्मृति नहीं हो सकती। क्योंकि संस्कारों का उद्बोधन ही स्मृति कहलाती है। स्मृति के अभाव में प्रत्यभिज्ञान का अस्तित्व नहीं। प्रत्यभिज्ञान स्मृति और अनुभवपूर्वक ही होता है । ४९
स्मृति भंग भी क्षणिकवाद के निरसन के लिये व्यावहारिक प्रमाण है। पदार्थ का स्मरण वही कर सकता है जिसने उसका अनुभव किया है। लौकिक तथा शास्त्रीय–दोनों दृष्टियों से क्षणिकवाद तर्क की कसौटी पर खरा नहीं
उतरता।
आत्मा को स्थायी सत्ता नहीं, बल्कि क्षण स्थायी मानसिक अवस्थाओं एक क्रम है । किन्तु क्षणिक अवस्थाओं के अस्तित्व मात्र से कोई क्रम नहीं ता। बिना सूत्र के फूलों की माला बनाना संभव नहीं । जिसमें अर्थ क्रिया हो
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन