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"नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा ११ “नैषा तर्केणमति रापनेया'१२ "न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग् गच्छति नो मनः१३ "नैष स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः"१४ आचारांग में ऐसा ही समानार्थक सूत्र है- ण इत्थी न पुरिसे ण अस्महा।" यहां व्यतिरेक पद्धति का आलम्बन लिया है।
आत्मा का स्वरूप सत्य, ज्ञान, आनन्दमय है। आचारांग और उपनिषद् मानो दोनों एक रेखा पर चल रहे हैं।
सत्य स्वरूप- तत्सत्यं स आत्मा१६, सत्यमात्मानम्।१७ एतत्सत्यं ब्रह्मपुरम् १८, सत्यं ब्रह्मेति, सत्यं ह्येव ब्रह्म।'' प्रश्न व्याकरण में भी सत्य को ही भगवान कहा है (सच्चं भयवं)।
आनन्द स्वरूप-विज्ञानमानन्दं ब्रह्म०, आनन्द आत्मा। आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् २२
ज्ञान स्वरूप- प्रज्ञान घन एव।२३
इसका प्रतिपाद्य यह है- आत्मा भी जीव है। चैतन्य भी जीव है। जिस साधन से आत्मा जानती है वह ज्ञान भी आत्मा है।
उपनिषद् आत्मा के स्वरूप को अनेक प्रमाणों से उद्घाटित करते हैंन जायते-म्रियते वा विपश्चित्, नायं कुतश्चित् न बभूव कश्चित्। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे।२४
अर्थात न किसी अन्य कारण से उत्पन्न हुआ है और न स्वतः ही बना है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। तथा शरीर के मारे जाने पर भी स्वयं नहीं मरता। गीता में इसका विस्तार से वर्णन है।२५
छान्दोग्योपनिषद् में आत्मा के स्वरूप का निरूपण एक वार्तालाप के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
सुरेन्द्र इन्द्र और असुरेन्द्र विरोचन-दोनों प्रजापति के पास उपस्थित हुए। आत्म-ज्ञान के लिये जिज्ञासा व्यक्त की। प्रजापति ने कहा- प्रथम ३२ वर्षों तक साधना करनी होगी तब कहीं तुम्हें समाधान मिलेगा।
आदेश की क्रियान्विति हुई। अवधि समाप्त होते ही पुनः उपस्थित हुए। आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा -
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