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आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा
अस्तित्व-बोध के बाद, आत्मा के स्वरूप का प्रश्न उठता है। जब हम किसी विषय का विमर्श करते हैं तो अस्तित्व का प्रश्न अहंभूमिका पर होता है। दूसरे नंबर पर स्वरूप की चर्चा है। आत्मा के स्वरूप को भारतीय मनीषियों ने विविध रूपों से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है क्योंकि आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप का ज्ञाता ही आत्मवादी हो सकता है।
जैन दर्शन ने आत्मा के लक्षण और स्वरूप की अभिव्यक्ति में व्यावहारिक और पारमार्थिक-दोनों दृष्टियों का प्रयोग किया है
आत्मा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त है। आत्मा का अस्तित्व ध्रुव है। “से ण छिज्जइ, ण भिज्जइ, ण उज्झइ, ण डम्मइ।"१ आत्मा किसी के द्वारा न छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है, न मारा जाता है।
आचारांग चूर्णि में-“सव्वे सरा णियटुंति, तक्का जत्थ ण विज्ई, मई तत्थ ण गाहिया।"२ शब्द के द्वारा आत्मा प्रतिपाद्य नहीं है, तर्कगम्य नहीं है और मति के द्वारा ग्राह्य नहीं है। यहां स्वर के स्थान पर प्रवाद शब्द प्रयुक्त है। सभी प्रवाद वहां से लौट आते हैं। आत्मा तक नहीं पहुंच पाते। अमूर्त आत्मा शब्दों, तर्कों का विषय नहीं बनता।
___ 'तं पडुच्च पडिसंखाए' ज्ञान के परिणाम उत्पन्न और विलय होते हैं। ज्ञान की विविध परिणतियों की अपेक्षा आत्मा का व्यपदेश होता है। यदि ज्ञान और आत्मा का अभेद सम्मत है तो फिर ज्ञान की अनेकता से आत्मा की भी अनेकता हो जायेगी क्योंकि ज्ञान के अनंत पर्यव हैं।
इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए सूत्रकार कहते हैं-यह आत्मा जिसजिस ज्ञान में परिणत होती है वह वैसी ही बन जाती है। इसलिये आत्मा उस ज्ञान की अपेक्षा व्यपदिष्ट होती है। भेदात्मक दृष्टि से आत्मा साध्य है, ज्ञान साधन है। अभेदात्मक व्याख्या में विज्ञाता और आत्मा का एकत्व है।
आत्मा के निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों स्वरूप ज्ञेय नहीं हैं। प्रश्न उठता है, फिर आत्मा को कैसे जानें ? इसका उत्तर आचारांग दे रहा है-'उवमा
आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा