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महर्षि यास्क ने भ्वादिगणीय अत-सातत्यगमने ४, एवं स्वादिगणीय 'आप्M व्याप्तौ ५, धातु से निष्पन्न माना है। 'आत्मा अततेर्वा आप्तेर्वा ८६ आत्मा सतत गतिमान् एवं सर्व व्यापक होती है। अदादिगणीय ‘अन् प्राणये'८७ धातु से आत्मा की सिद्धि होती है।
अनिति प्राणान् धारयतीति आत्मा८-जो प्राणों को धारण करे वह आत्मा है। अत्यते लभ्यते मुक्तैरित्यात्या-जो मुक्त पुरुषों द्वारा प्राप्त किया जाता है वह आत्मा है'। (साभार तुलसी प्रज्ञा से उद्धृत, पृ. ३१५)।
आत्मा के अभिवचन
__ जीव की जितनी अवस्थाएं हैं, वे सब पर्याय हैं। पर्याय के आधार पर आत्मवाची अनेक शब्दों का जैन वाङ्मय में उल्लेख प्राप्त है। भगवती सूत्र में तेईस नामों का निरूपण है-९०
'गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तंजहा-जीवे तिवा, जीवत्थिकाये ति वा, पाणे ति वा, भूए ति वा, सत्ते ति वा, विन्नु ति वा, चेया ति वा, जेया ति वा, आया ति वा, रंगणा ति वा, हिंडुए ति वा, पोग्गले ति वा, माणवे ति वा, कत्ता ति वा, विकत्ता ति वा, जए ति वा, जंतु ति वा, जोणी ति वा, संयंभू ति वा, सशरीरी ति वा, नाणए ति वा, अंतरप्पा ति वा, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते जाव अभिवयणा।"
इन अभिवचनों से जीव सम्बन्धी अनेक तथ्यों की अवगति मिलती है। सभी गुण संपन्न और यथार्थ नाम हैं। टीका ग्रंथों में जीव, प्राण, सत्त्व शरीरभृत् और आत्मा को एकार्थक माना है।"
धवला में आत्मा को अनेक नामों से अभिहित किया है१२ - जीव, कर्ता, वक्ता, प्राणी, भोक्ता, पुद्गल, वेत्ता, विष्णु, स्वयंभू, शरीरी, मानव, सक्ता, जन्तु, मानी, मायावी, योग सहित, क्षैत्रज्ञ आदि।
जैन दर्शन की तरह पुराण, वेदान्त, उपनिषद् आदि तथा अन्य भाषाओं में भी आत्मा के पर्यायवाची नामों का उल्लेख है।
महापुराण में वर्णित-जीव, प्राणी, जन्तु, क्षैत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी आदि भी समान अर्थ के द्योतक हैं।९३
अद्वैत वेदान्त में आत्मा एक मौलिक तत्त्व है। इसे अनुभव, ज्ञान, चित्त और संवित्त नाम से जाना जाता है। आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अस्तित्व का मूल्यांकन
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