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द्वारा होने वाला ज्ञान भी युगपत् नहीं होगा। आत्मा निरंश हो जायेगी। ऐसा होने पर दो हिस्सों में होने वाली संवेदनाओं के साथ सम्बन्ध न होने से कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। आत्मा को व्यापक मानने वालों ने कई युक्तियों के द्वारा अपने मत की सत्यता को साबित किया किन्तु वे तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं।
आत्मा के अमूर्त और नित्य होने से आकाश की तरह व्यापक कहना भी उचित नहीं। जो नित्य हो वह व्यापक ही हो-यह कोई व्याप्ति नहीं बनती।
न्याय-वैशेषिक और वेदान्त ने अदृष्ट को सर्वव्यापी माना है। अदृष्ट आत्मा का गुण है इसलिये आत्मा भी व्यापक है यह दलील भी यथार्थ नहीं है। आचार्य मल्लिषेण ने इसका खण्डन करते हुए लिखा है-अदृष्ट के सर्वव्यापी होने का प्रमाण नहीं मिलता ८ तथा इससे ईश्वर के कर्तृत्व पर भी आघात होता है।४९
आत्मा को व्यापक मानने से और कई आपत्तियां आती हैं। जैसे१. आत्मा परलोकगमन नहीं कर सकेगी। २. कौन आत्मा किस शरीर की नियामक है-यह कहना कठिन है। ३. अनेकात्मवाद के साथ भी संगति नहीं बैठती। ४. भोजन आदि व्यवहार में संकर दोष आता है। एक के खाने से उसका
स्वाद सबको आयेगा क्योंकि आत्मा व्यापक है-यह तथ्य किसी को मान्य नहीं।
प्रत्यक्ष प्रमाण से भी आत्मा की व्यापकता सिद्ध नहीं होती। आत्मा को व्यापक मानने से शुभ-अशुभ कर्मों का भी मिश्रण हो जायेगा। एक के दुःखी होने से सभी दुःखी, एक के सुखी होने पर सब सुखी होंगे।
स्वामी कार्तिकेय ने आत्मा को सर्वगत नहीं माना, कारण-सर्वज्ञ को सुख-दुःखानुभूति नहीं होती। शरीर में सुख-दुःख का अनुभव आत्मा के देहपरिमाण होने का संकेत है।
आचार्य हेमचन्द्र आत्मा के सर्व व्यापकत्व का निराकरण करते हुए लिखते हैं
यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवत् निष्प्रतिपक्षमैतत्। तथापि देहाद् बहिरात्म-तत्त्वमतत्त्व वादोपहताः पठन्तिः।।९।।
(अन्ययोग व्यच्छेदिका श्लोक-९) आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अस्तित्व का मूल्यांकन