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आत्मा संसार में जितने पुद्गल हैं, उनमें से प्रत्येक का विभिन्न योनियों में उपभोग-प्रयोग करती है। इस प्रकार लोकस्थ समग्र पुद्गल परिभुक्त हो जाते हैं तब एक पुद्गल परावर्तन कहा जाता है। ऐसे अनन्त पुद्गल परावर्तों से जीव गुजरता है वह भव-चक्र का रूप है।
इस भव-चक्र में दो पुद्गल परावर्तन काल शेष रहता है, तब धर्म-श्रवण अभिलाषा जागती है। डेढ पुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर धर्म के आचरण की रुचि पैदा होती है। एक पुद्गल परावर्तन काल रहने से वीतराग पथ पर चलने का साहस होता है। आयुष्य के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की कुछ न्यून अन्तः कोड़ा-कोड़ी सागरोपम की स्थिति रहती है। यह यथाप्रवृत्तिकरण है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में क्रमिक विकास होता है। देहाध्यास कम होने लगता है। सम्यग्दर्शन की यही निशानी है।
सम्यग्दर्शन का महत्त्व जैन दर्शन में ही नहीं, अन्यत्र जैनेतर दर्शनों में भी देखने को मिलता है। मनु ने लिखा है- सम्यग्दर्शन से संपन्न व्यक्ति कर्मबद्ध नहीं होता। संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
उपनिषद में लिखा है- मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग उस्तरे की धार के समान तीक्ष्ण है जिस पर चलना कठिन और पार करना अत्यंत कठिन है।"
ज्ञान से यथार्थ बोध होता है। दर्शन से दृष्टिकोण सम्यक् बनता है। चारित्र से कर्मादान रुक जाता है।
बंधन से मुक्ति की ओर प्रस्थान की प्रक्रिया
कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया में मूल उपादान है- संवर एवं निर्जरा। दोनों एकदूसरे के पूरक हैं। संवर का अर्थ है- मर्यादित जीवन-प्रणाली। अपने अस्तित्व का बोध। निर्जरा परिष्कार की क्रिया, संवर से कर्म-निरोध होता है। कर्माणुओं ६ की प्रवहमान धारा को बदलने का एक उपक्रम संवर है। संवर के अभाव में निर्जरा का अधिक मूल्य नहीं है। ___ जैन दर्शन में संवर के दो प्रकार हैं- द्रव्य संवर, भाव संवर। कर्माणुओं को रोकने वाला कारण द्रव्य संवर है और द्रव्यास्रव का अवरोधक आत्मा की चैतसिक स्थिति भाव संवर है।८७
संवर के पांच अंग हैं-सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय, अयोग।
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन