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________________ मोक्ष का स्वरूप : विमर्श जीवन एक यात्रा है। उसकी पूर्णाहूति है-मोक्ष। मोक्ष ही एक ऐसी धुरी है जिसे आधार मान कर सभी तत्त्वचिंतक क्रियाशील हैं। सभ्यता के उषाकाल से ही मानव-अस्तित्व की समस्या के सम्बन्ध में विविध विचार-पद्धतियां विद्यमान रही हैं। जिनमें एक आधुनिक भौतिकवाद के जनक वृहस्पति द्वारा प्रस्थापित पूर्णतया ऐहिक है। दूसरी पारलौकिक जिसकी आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष में आस्था है। अस्तित्ववादी विचारधारा का केन्द्र-बिन्दु है- मोक्ष। पुरुषार्थ चतुष्ट्य में मोक्ष का प्रमुख स्थान है। धर्म साधन है। मोक्ष साध्य है। जीवन-प्रवाह का विशिष्ट लक्ष्य मोक्ष है। उसे पाने से पूर्व आत्मा को जन्म-मृत्यु की लम्बी परम्परा से गुजरना पड़ता है। आज विज्ञान भी जीवन को निरूद्देश्य नहीं मानता। जब चार्ल्स डार्विन ने क्रम-विकास के सिद्धांत की घोषणा की तब जीव-विज्ञान के क्षेत्र में हलचल मच गई थी। उन्होंने Theory of Evolution' अर्थात् क्रम विकास के सिद्धांत द्वारा जीवन के क्रम को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने कहा-विश्व में जितनी योनियां (Species) दिखाई देती हैं वे सब की सब एक क्रम से बंधी हुई हैं। इस क्रम को विकास का क्रम (Process of Evolution) कहकर पुकारा। ___इस सिद्धांत की चर्चा का निष्कर्ष यही होगा कि जीवन-प्रवाह का प्रारंभ अमीबा (जीवाणुकोष) से होता है। विविध योनियों को पार करता हुआ मनुष्य योनि तक आता है। विकासवाद की यही पूर्णाहूति है। जैन दर्शन जीवन प्रवाह को अनादि-अनन्त मानता है। प्रवाह सतत् प्रवहमान एक सरिता है। जन्म से पूर्व के भाग और मृत्यु के बाद के भाग को नहीं देख पाते इससे जीवन का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। यह दृष्टि की सीमा है। दृष्टि-शक्ति की परिच्छिन्नता देह और मन के परदे के कारण उपजती हैं। मोक्ष का स्वरूप : विमर्श - २१५.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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