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यानी परमाणुओं से हुआ है। परमाणुओं का विभिन्न सांयोगिक सहयोग विकास का आधार है।
अरस्तु ने जीवों के इतिहास, जीवों के प्रजनन तथा वर्गीकरण और जीवन सारणी को अपनी लेखनी का विषय बनाया। उसने अपने साहित्य से सिद्ध किया कि विकास आकस्मिक या किसी देवता का वरदान नहीं, किन्तु परिवर्तन पदार्थ की आंतरिक तथा नैसर्गिक प्रक्रिया है। जैन दर्शन में जीव की विकास यात्रा
जैन दर्शन परिणामी नित्यवादी है। पदार्थ में परिवर्तन अवश्यंभावी है उसमें उपादान और निमित्त दोनों योगभूत हैं। उपादान कारण स्वयं द्रव्य है। काल सहायक कारण है। पदार्थ को एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य मानने से ह्रास-विकास की संगति नहीं बैठती। परिणामी नित्यवाद में हास-विकास की प्रक्रिया का समीकरण है। जीव-विकास के चार स्तंभ हैं। चारों का समन्वित रूप ही संपूर्ण विकास की व्याख्या है१. जैविक विकास
२. मानसिक विकास ३. नैतिक विकास
४. आध्यात्मिक विकास परिवर्तन और विकास सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं। जैविक विकास का स्वरूप और उसके यथार्थ चिंतन में जैन दर्शन की वैज्ञानिक पद्धति है। परिवर्तनशीलता में कुछ पदार्थ प्रकृतिजन्य हैं जिनका परिवर्तन नहीं होता। वे शाश्वत रूप हैं । ठाणांग सूत्र में उनका नामनिर्देश है
१. जीव का अजीव में, अजीव का जीव में रूपानतरण नहीं होता। २. परमाणु का विभाजन नहीं होता, वह अविभाज्य है। ३. लोकांत के आगे गमन नहीं होता। ४. सत् का सर्वथा विनाश और असत् का सर्वथा उत्पाद नहीं होता। ५. पदार्थ मात्र परिणमनशील है। जैविक विकास
जैव विकास की अवधारणा जैन दर्शन में जातिमूलक न होकर व्यक्ति मूलक है। प्राणी मात्र अपनी आंतरिक योग्यता या निमित्तभूत सहायक साधनों के सहयोग से विकास या ह्रास की ओर आगे बढ़ता है। क्रमिक विकासवाद जैन दर्शन को मान्य नहीं।
विकासवाद : एक आरोहण
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