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________________ इस प्रकार सम्पूर्ण कालक्रम में कर्मवाद के परिवर्द्धन, संशोधन और संगतिपूर्ण प्रस्तुतीकरण के प्रयत्न होते रहे हैं। भगवती सूत्र में कर्म विषयक संदर्भों का सुविस्तृत विवेचन है। भगवती की विशेषता है, जिस प्रसंग को उठाया उसकी मार्मिक व्याख्या उपलब्ध होती है। कर्म सिद्धांत के विकास की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। विपाक सूत्र में कर्मों के विपाक से सम्बन्धित चर्चा है । उपांग साहित्य पर दृष्टिपात करने से प्रज्ञापना और किसी हद तक जीवाभिगम को छोड़कर शेष उपांगों में कर्म - सिद्धांत से सम्बन्धित सामग्री का अभाव ही है। प्रज्ञापना सूत्र में कर्म-बंधन एवं बंधन के कारकों के प्रमुख भेदाभेद, कर्मसिद्धांत के विकास को तो इंगित करते हैं, साथ ही उन तथ्यों पर भी प्रकाश ते हैं जिनके कारण जीव कर्मपाश में फंसता है। भारतीय विचार दर्शन एक धुरी है जिसके चारों और मौलिक मूल्यों का विकास होता रहा है। मूल स्रोतों से सारी सामग्री एकत्रित कर पाना संभव नहीं है । एक जैन कर्म - सिद्धांत का क्षेत्र भी इतना विशाल है कि आद्योपांत पढ़ना भी कठिन है। जैन कर्म सिद्धांत की लाक्षणिक विशेषताएं १. कर्म एक सार्वभौमिक नियम है। प्राणी मात्र उससे प्रभावित है। २. प्रत्येक प्राणी के साथ कर्म सम्बन्ध प्रवाहतः अनादि हैं, व्यक्तिशः सादि हैं। ३. कर्मों की कर्ता - भोक्ता आत्मा स्वयं है । ४. आत्मा को कर्म फलदान स्वतः मिलता है, किसी अन्य माध्यम से नहीं । ५. कर्मबंधन के बाद उनमें परिवर्तन भी संभव है। ६. आत्मा अपने पुरुषार्थ की छैनी से अनादिकालीन कर्मों को तोड़ सकता है। ७. साधना का सार यही है, नये कर्मों का आदान रोकना और बद्ध कर्मों को तोड़ना । कर्मवाद जैन दर्शन का केन्द्र है, जिसके आस-पास उसका समग्र दर्शन परिक्रमा करता है। कर्म - सिद्धांत का मनन करने पर लगता है, कर्म - सिद्धांत का तार्किक एवं वैज्ञानिक प्रतिपादन एक साथ नहीं हुआ । कालक्रम से हुआ है। जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन • १२६०
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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