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नहीं । हो भी सकती है, और नहीं भी । किन्तु उदीरणा भाव में औदयिक भाव नियम से होते हैं। कर्म का निमित्त-नैमित्तिक भाव औदयिक भाव के साथ है।
जितने अंश में रागादि भाव आत्मा में होंगे, उतने ही अंश में कार्मण वर्गणा को तदनुरूप होना नैमित्तिक है। प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में स्वभाव, काल आदि पांचों समवाय कारण अवश्य होते हैं। स्वभाव यानी द्रव्य की स्वशक्ति। काल-समय। पुरुषार्थ-बल है। नियति-समर्थ उपादान और कर्म से निमित्त लिया गया है। कार्य बिना निमित्त के संभव नहीं। उपादान में अनेक कार्य करने की क्षमता है पर उसमें कौनसी शक्ति कार्यरूप में परिणत होगी, यह निमित्त पर आधारित है।
पानी में वाष्प या बर्फ दोनों बनने की शक्ति है। किन्तु वाष्प बनेगा या बर्फ यह अग्नि और फ्रिज पर निर्भर है। विज्ञान जगत में भी निमित्त-नैमित्तिक की चर्चा है। हम जिसे निमित्त कहते हैं, रसायन विज्ञान में उसे उत्प्रेरक के नाम से अभिहित किया है।
उत्प्रेरक किसे कहते हैं-"वह पदार्थ जो केवल अपनी उपस्थिति द्वारा रासायनिक क्रियाओं का वेग घटा या बढ़ा देते हैं और प्रक्रिया के अंत में इनकी बनावट और भार में कोई अंतर नहीं आता है, ऐसे पदार्थों को उत्प्रेरक कहते हैं। और इस प्रकार की प्रक्रिया को उत्प्रेरणा कहा जाता है।''
अतः कर्म का सिद्धान्त कार्य-कारण या निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का सिद्धांत है। कार्य-कारण में अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है। प्रत्येक कार्य में कारण अवश्य होता है। जहां कारण है कार्य नियमतः देखा जाता है। कारण पूर्ववर्ती अवस्था है, कार्य उत्तरवर्ती। कार्य का नियामक हेतु कारण है। न्याय-वैशेषिक में कारण के संदर्भ में तीन कसौटियों का निर्देश है-पूर्ववर्तित्व, नियतत्व, अन्यथा सिद्धत्व।
१. पूर्ववर्तित्व- कारण कार्य से पूर्व होता है किन्तु पूर्ववर्ती प्रत्येक क्रिया कारण नहीं बनती। जैसे- मयूर बोला और वर्षा आ गई। किन्तु यह नियम नहीं बनता कि मयूर बोलेगा तभी वर्षा होगी। यह तो कादाचित्क घटना है।
२. नियतत्व कार्य से पूर्व जो कारण विद्यमान रहता है उसे नियतत्व कहते हैं। पूर्ववर्ती की भी अनेक स्थितियां हो सकती हैं पर वे सब की सब कारण नहीं कहलातीं। अतः तीसरा विशेषण है अन्यथा सिद्ध-इसका तात्पर्य है जिसका कार्य के साथ साक्षात् सम्बन्ध न हो। जैसे घट के निर्माण में कर्मवाद; उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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