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जैन दर्शन का समाधान इस प्रकार है कि इनके जोड़ में वर्ण, गंध, रस कारण नहीं, केवल स्पर्श इसका हेतु है । स्निग्ध- रुक्ष में से एक और शीत-उष्ण में से एक। इस प्रकार दो से लेकर अनंत तक परमाणु जुड़ते हैं। स्निग्ध का अर्थ है पोजीटिव (Positive) और रूक्ष का अर्थ है नेगेटिव ( Negative) |
विज्ञान की भाषा में नेगेटिव - पोजीटिव मिलकर विद्युत् उत्पन्न करते हैं। प्रत्येक एटम में, चाहे किसी भी वस्तु का हो, पोजीटिव - नेगेटिव बिजली के कण भिन्न-भिन्न संख्या में विद्यमान रहते ही हैं। सोना, चांदी आदि सभी द्रव्यों के अणुओं में इसी प्रकार की रचना है। एक परमाणु भी इलेक्ट्रॉन (Electron), न्युट्रॉन (Neutron) और प्रोटॉन (Proton) का समिश्रण है। ये परमाणु संयुक्त होकर जब आत्मा के साथ सम्बन्ध करते हैं तब उनका स्वभाव (Nature), काल (Period), बल (Power), संख्या (Quantity) निश्चित हो जाती है ।
कोई भी क्रिया की जाती है तो उसके साथ ही कर्मों का बंधन हो जाता है। ऐसा कभी नहीं होता कि क्रिया अभी हो, कर्म-बंधन कभी बाद में हो सकता है। उसके विपाक और उपभोग का काल लम्बा हो सकता है। आत्मा के साथ संपृक्त होने के पश्चात उनमें जो व्यवस्था होती है वह स्वतः होती है। फल देने की शक्ति आ जाती है और समय आने पर कर्म पुद्गल उदय में आने लग जाते हैं।
कर्म की विभिन्न अवस्थाएं
कर्म की दस अवस्थाओं का निरूपण कर्म - साहित्य में उपलब्ध है। इनका गहरा चिंतन हुआ है। दस अवस्था में प्रथम अवस्था बंध है और अंतिम अवस्था है निकाचना । दोनों के बीच में हैं-सत्ता, उदय, उदीरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण, उपशमन, निधत्ति ।
प्रस्तुत अवस्थाएं भाग्य परिवर्तन, रूपान्तरण, परिशोधन, परिवर्धन, संरचना एवं संक्रमण करने की कला का विज्ञान हैं।
१. बंध- कषाय और योग के फलस्वरूप कर्म-प्रदेशों का आत्म-प्रदेशों से मिलकर नई अवस्था पैदा करना बंध है । यह महत्त्वपूर्ण अवस्था है, क्योंकि अन्य सभी अवस्थाएं इसी पर निर्भर हैं। बंध समय की अवस्था के बद्ध २७ स्पृष्ट और बद्धस्पृष्ट - ऐसे तीन पक्ष हैं।
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बद्ध-कर्म प्रायोग्य पुद्गलों की कर्म रूप में परिणति ।
स्पृष्ट-आत्म-प्रदेशों से कर्म - प्रदेशों की संश्लिष्ट अवस्था ।
कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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