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इनमें न ज्ञानात्मक पक्ष बंधन का कारण है, न अनुभूत्यात्मक पक्ष। तीसरा संकल्पात्मक पक्ष-जिसे कर्म-चेतना कहते हैं, बंधन का कारण है। ज्ञान-चेतना कर्म बंध का कारण नहीं बनती, क्योंकि वह बन्धन-मुक्त आत्माओं के होती है। कर्मफल-चेतना भी कर्म बंध में निमित्त नहीं क्योंकि केवली या अर्हत में भी वेदनीय कर्म का फल भोगने के कारण कर्मफल चेतना तो होती है किन्तु बन्धन का निमित्त नहीं बनती। मूल कर्म-चेतना ही राग-द्वेष या कषायादि भावों की कर्ता है।
बंध तत्त्व व्यापक है। बंध क्या है ? बंध किसका होता है ? बंध का हेतु क्या है ? बंध की प्रक्रिया, बंध के भेद-प्रभेद आदि का विश्लेषण किया गया। कर्म का मुख्य कार्य है संसार का परावर्तन कराना। जैन दर्शन में जीव एवं कर्म का सम्बन्ध एक सांयोगिक प्रक्रिया है।
विविध संवेदनात्मक अनुभूतियां भी कर्मों के सांयोगिक परिणाम के प्रतिफल हैं। जीव अनंत हैं। उनसे भी अनंत गुण-कर्म-वर्गणाएं हैं और उन कर्मवर्गणाओं से ब्रह्माण्ड परिपूिरित है।
आधुनिक विज्ञान में समस्त प्राकृतिक घटनाएं पदार्थ एवं ऊर्जा की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं (Interaction) के कारण हैं। इसी तरह जीव और जगत् में जो विविधताएं परिलक्षित हैं। उनका मूलभूत कारण है-जीव एवं सूक्ष्मतम पौद्गलिक कणों की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं की निष्पत्ति।
आत्मा में प्रति समय राग-द्वेषात्मक कोई न कोई भाव अवश्य रहता है। उन भावों से आत्म प्रदेश प्रकंपित होते हैं। उस स्थिति में जीव की योगशक्ति समीप की कर्म-वर्गणाओं को आकर्षित कर अपने साथ एकरूप कर लेती है। वे ही कर्म-वर्गणाएं कर्म नाम से अभिहित होती हैं। भाव कर्म भीतर की जैविकरासायनिक प्रक्रिया है। द्रव्य कर्म शरीर की रासायनिक प्रक्रिया है। दोनों एक दूसरे को प्रभावित करती हैं।
__ कर्म के दो प्रकार हैं-द्रव्य और भाव। मानसिक चिन्तन भाव कर्म है। जो इन भावों का प्रेरक है, वह द्रव्य कर्म है। कर्म की समुचित व्यवस्था के लिये आवश्यक है कि कर्म के आकार (Form) और विषयवस्तु (Matter) दोनों ही हों। कर्म विषयवस्तु है, मनोभाव आकार है। भाव कर्म का आन्तरिक कारण आत्मा है। जैसे-घट का उपादान मिट्टी है।
द्रव्य कर्म कार्मण वर्गणा का विकार है। आत्मा निमित्त कारण है। किसी भी कार्य में निमित्त और उपादान-दोनों की समान विवक्षा है। भाव कर्म उपादान है, द्रव्य कर्म निमित्त है। कर्मवाद; उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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