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अनुभाग-बंध-आत्मा से अनुबंधित कर्मों में फलदान की शक्ति को अनुभाग-बंध कहते हैं। यह कर्म फलदान की व्यवस्था है। इसके अनुसार कर्म पुद्गलों में रस की तीव्रता एवं मंदता का निर्माण होता है।
प्रदेश-बंध-प्रदेश-बंध में जीव और पुद्गल प्रदेश क्षीर-नीर की तरह एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं। वह प्रदेश-बंध है। यह कर्म का व्यवस्थाकरण है। बंध की चारों अवस्थाएं एक साथ होती हैं। कर्म-व्यवस्था के ये प्रधान अंग हैं।
आत्मा और कर्म पुद्गलों के एकीभाव की दृष्टि से प्रदेश-बंध का स्थान पहला है। प्रदेश-बंध के साथ ही स्वभाव-निर्माण, काल-मर्यादा, और फलदान-शक्ति का निर्माण हो जाता है।
___ कर्म साहित्य में प्रकृति बंध के दो प्रकारों का उल्लेख मिलता है- मूल प्रकृति-बंध, उत्तर प्रकृति-बंध। ज्ञानावरणीय२३ आदि आठ कर्म मूल प्रकृति-बंध हैं। स्वभाव या कार्य-भेद के कारण आठ भेद होते हैं। जैसे एक बार में खाया हुआ भोजन पचकर खून, रक्त, मांस, मज्जा, मल-मूत्र, वात-पित्त, श्लेष्मा आदि अनेक रूप में परिणत हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा के परिणमन से एक बार में ग्रहण किये गये पुद्गल परमाणु ज्ञानावरणीय आदि विभिन्न रूपों में परिणत हो जाते हैं।
___ कर्म के मूल आठ भेद हैं। उनकी उत्तर प्रकृतियां एक सौ अड़तालीस प्रभेदों में विभक्त हैं। पंचाध्यायी में उत्तर प्रकृति के अवान्तर भेद असंख्यात होने का भी उल्लेख है। १. ज्ञानावरणीय- ज्ञान को आवृत करता है जैसे बादल सूर्य प्रकाश को
आवृत करता है। २. दर्शनावरणीय- जो कर्म वर्गणाएं दर्शन-शक्ति में बाधक होती हैं। जैसे
द्वारपाल राजा के दर्शन में बाधक बनता है। ३. वेदनीय- सांसारिक सुख-दुःख की संवेदना का अनुभव कराता है। ४. मोहनीय- विवेक-शक्ति को कुण्ठित कर देता है, जैसे मद्यपान से विवेक
लुप्त हो जाता है। ५. आयुष्य- यह विविधि गतियों में जीवन की अवधि का नियामक है। इस
कर्म की तुलना कारागृह से की जा सकती है। ६. नामकर्म- यह गति आदि पर्यायों के अनुभव के लिये बाध्य करता है
तथा विविध परमाणुओं से शरीर की रचना का दायित्व निभाता है।
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन