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कथावस्तु
तेरापंथ धर्मसंघ के आठवें आचार्यश्री कालूगणी का जन्म राजस्थान के छोटे से गांव छापर (चूरू) में हुआ। वे अपने पिता मूलचन्दजी कोठारी और माता छोगांजी के इकलौते पुत्र थे। जन्म के एक साल बाद ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया और पुत्र के लालन-पालन का सारा दायित्व माता छोगांजी पर आ गया। छोगांजी अपने नयनों के तारे पुत्र के साथ पिता के घर रहने लगीं। वहां साधु-साध्वियों के संपर्क से उनके अंतःकरण में वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे। मां के विचारों का प्रतिबिम्ब पुत्र के जीवन पर पड़ा और वह भी भौतिक परिवेश से दूर हटकर आत्मोदय के स्वप्न देखने लगा।
__ पूज्य कालूगणी के दो नाम थे-शोभाचंद और कालू। उनकी प्रसिद्धि दूसरे नाम से ही अधिक थी। आठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने वि. सं. १६४१, सरदारशहर में तेरापंथ संघ के पांचवें आचार्यश्री मघवागणी के प्रथम बार दर्शन किए। उनका भावुक मन अभिभूत हुआ और वह शीघ्र ही मघवागणी की सन्निधि पाने के लिए उतावला हो उठा। तीन वर्ष तक संस्कारों को विशेष पोषण देने के बाद वे अपनी माता श्री छोगांजी और मासी-दुहिता कानकुमारीजी के साथ बीदासर में पूज्य मघवागणी के कर-कमलों से दीक्षित हो गए।
मघवागणी अपने शैक्ष शिष्य काल की असाधारण योग्यता और स्थिर प्रज्ञा से प्रभावित हुए। शिष्य को तैयार करने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किया तो कालूगणी ने भी अपने आपको मघवागणी के अनुरूप ढालने का ठोस प्रयत्न किया। परिणाम यह हुआ कि कालूगणी मघवागणी की प्रतिकृति बन गए।
शिष्य गुरु की मंगलमय छत्रछाया में अपनी क्षमताओं का विकास करने में संलग्न था। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि जिस महान वृक्ष के सहारे उसकी जीवन-लता ऊपर चढ़ रही है, वह असमय में ही गिर पड़ेगा। किंतु किसी का सोचा हुआ कब पूरा होता है? मघवागणी ने माणकगणी को अपना उत्तराधिकार
२४ / कालूयशोविलास-२