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कालू शासन- कल्पतरु, कालू कला - निधान । कालू कोमल कारुणिक, कालू गण की शान ।।
मघवागणी का साया उठ जाने पर कालूगणी की मनःस्थिति का चित्रण उत्प्रेक्षा अलंकार में उभर रहा है
पलक-पलक प्रभु-मुख-वयण - स्मरण - समीरण लाग । छलक छलक छलकण लग्यो कालू हृदय - तड़ाग । ।
उपमा और उत्प्रेक्षा के मध्य झांकता हुआ स्याद्वाद का निरूपण देखिए
स्वंगी सतभंगी सुखद सतत संगी - हेत । व्यंगी एकांगी कृते झंगी - सो दुख देत ।। इतर दर्शणी कर्षणी नय- वणिज्य- अनभिज्ञ । विज्ञ वणिग जिन-दर्शणी नय दुर्णय विपणिज्ञ । ।
डिंगल कविता से प्रभावित 'कालूयशोविलास' के एक प्रसंग में अनुप्रास की छटा उल्लेखनीय हैं
खिलक्कत कित्त कुरंग सियाल, मिलक्कत मांजर मोर मुषार 1 सिलक्कत सांभर शूर शशार, ढिलक्कत ढक्कत ढोर ढिचार ।।
संघीय-संपदा - वर्णन के प्रसंग में साध्वियों से संबंधित एक पद्य पढ़िए
संयम-रंगे रंगिणि चंगिणि सज्ज मतंगिणि चाल ।
शील सुरंगिणि उज्ज्वल अंगिणि लंघिणि जग-जंबाल । ।
आचार्य श्री तुलसी एक बृहत्तर धर्मसंघ के आचार्य हैं, साधक हैं, लेखक हैं, कवि हैं, वक्ता हैं और उससे भी अधिक एक समर्पित व्यक्तित्व हैं । समर्पण का संबंध भाव- प्रवणता से है । भावना स्त्री हृदय की कोमल उर्वरा में अंकुरित होती है। पुरुष-हृदय की परुषता में समर्पण का बीज - वपन ही कठिन है, अंकुरण की तो बात ही दूर । किंतु आचार्यश्री की अंतश्चेतना पर समर्पण का जो पल्लवन हुआ है, वह एक विशेष घटना है। आचार्यश्री का समर्पण भाव देखकर यह संदेह सावकाश हो जाता है कि एक स्त्री में भी इतना समर्पण होता है या नहीं ?
कालूयशोविलास-२/२१