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मंगल वचन
दोहा
१. स्वस्ति-श्री-शुभ-संतती विशद वल्लरी-बात।
विकसावण सावण-जलद, नमूं नाभि-तनुजात।। __मैं नाभि-सत प्रथम तीर्थंकर ऋषभ को नमन करता हं, जो स्वस्ति. श्री और श्रेयस की सन्तति रूपी विशद वल्लरी-समूह को विकसित करने के लिए सावन का जलधर है।
बाल्य-राज्य-साम्राज्य-मुनि-जिन-श्री-असुहित-चित्त। वरी मुक्ति-कमला बली, स्मरूं शान्ति सुपवित्त ।।
बाल्यश्री, राज्यश्री, साम्राज्यश्री, मुनिश्री और जिनश्री-इतने श्रीसमूह को प्राप्त करके भी जिसका चित्त तृप्त नहीं हुआ, जिसने अंत में मुक्तिश्री का वरण किका, उस सुपवित्र अर्हत शांतिनाथ का मैं स्मरण करता हूं।
३.
मोह-वीर श्री वीर नै, करवायो संकल्प। क्षीण-मोह तिण स्यूं प्रथम, वंदूं विगत-विकल्प।।
कर्म-समूह में सर्वाधिक वीर है मोह। उसने महावीर को एक मोहात्मक संकल्प करवा दिया-माता-पिता के जीवनकाल में दीक्षा नहीं लूंगा। वीर बर्धमान ने इसीलिए सर्वप्रथम मोहकर्म का क्षय किया। उस वीर को मैं निर्विकल्प होकर वंदना करता हूं।
४.
आदि-भान-उपमान-युत, है जग-जाहिर ख्यात। मानसमंदिर में बसो, दीपक दीपांजात ।।
आदि तीर्थंकर, अर्हत ऋपभ से जिसकी तुलना होती है, वह दीपक (स्व-पर-प्रकाशी दीपक) दीपां-सुत मेरे मन-मंदिर में वास करे। उसकी ख्याति
उल्लास : प्रथम / ५६