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उक्त सन्दर्भ में व्याख्यान के समय पूज्य कालूगणी और पूज्य गणेशीलालजी महाराज के बीच चर्चा हुई। चर्चा में अनेक उतार-चढ़ाव आए। आखिर कालूगणी ने समवायांग सूत्र का पाठ दिखाकर पूछा कि बारह प्रकार के संभोगों/संभोजों में कौन-कौन से व्यवहृत हो सकते हैं ? इस पर गणेशीलालजी महाराज बोले कि वे तो कालूगणी से इस प्रश्न का उत्तर लेने आए हैं। सातवें गीत में चर्चा पूरी नहीं होती है, पर इसका वर्णन एक मनोविज्ञान को प्रस्तुति देने वाला है।
आठवें गीत का प्रारंभ अधूरी चर्चा को समापन के बिन्दु की ओर ले जाता हैं। पंडित भगवानदासजी के अनुरोध पर कालूगणी ने व्यवहार सूत्र के आधार पर साधु-साध्वियों के बीच आहार-पानी के आदान-प्रदान की बात युक्तिपुरस्सर प्रस्तुत की। प्रस्तुति का तरीका इतना सुन्दर था कि दोनों पक्षों के लोग चित्रित-से हो गए। इसके बावजूद कुछ व्यक्ति केवल वाद-विवाद ही करना चाहते थे, उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। लगभग पौने दो घंटे की इस चर्चा का समापन आठवें गीत में हुआ है।
___ कालूगणी के जीवन में चर्चाओं के प्रसंग बार-बार उपस्थित होते रहे। रतनगढ़-प्रवास में पूसराजजी दूगड़ (सरदारशहर) ने प्रश्न पूछा-'तीर्थ कब तक चलेगा ?' कालूगणी बोले-'तीर्थ के दो अर्थ होते हैं-प्रवचन और संघ। प्रवचन रूप तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक चलेगा। संघ रूप तीर्थ के बारे में कोई नियामकता नहीं है।' कालूगणी का उत्तर आगमसम्मत और युक्तिसंगत था। किन्तु अनाग्रही वृत्ति के अभाव में वह बुद्धिगम्य नहीं हो पाया।
राजलदेसर-प्रवास में कालूगणी के पैर के अंगूठे में व्रण हो गया, इस कारण एक महीने से अधिक प्रवास हो गया। उस समय कालूगणी के सान्निध्य का लाभ काफी साधु-साध्वियों को मिला । ग्रन्थकार ने प्रसंगवश साधु-साध्वियों की विशेषताओं को काव्यात्मक प्रस्तुति दी है। __कालूगणी ने एक दिन साधु-साध्वियों की गोष्ठी में तीन बातें कहीं
१. चर्चा के लिए किसी अन्य स्थान में नहीं जाना और किसी व्यक्ति विशेष को मध्यस्थ नहीं मानना।
२. चर्चा या शास्त्रार्थ करते समय शान्त रहना। चर्चा के समय उत्तेजित होना पहली हार है।
३. शास्त्रार्थ में एक बार में एक ही प्रमाण देना। अन्य प्रमाणों को अपेक्षा होने पर यथासमय प्रस्तुत करना।
कालूगणी की शिक्षात्रयी का सम्बल साथ लेकर साधु-साध्वियों ने विहार किया। उन्होंने जिन-जिन क्षेत्रों में प्रवास किया, वहां आचार्य भिक्षु के मन्तव्यों
कालूयशोविलास-१ / ४५