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आदि के बारे में पूछताछ, समय-समय पर शिक्षामृत की वर्षा, सन्तों के सात और साध्वियों के तीन नए सिंघाड़ों का निर्माण, कालूगणी की कार्यदक्षता आदि का विवेचन पन्द्रहवें गीत में है। _ वि.स. १६६६ से १६७० तक चार वर्षों में कालूगणी ने जिन-जिन को दीक्षित किया, उन सबका उल्लेख सोलहवें गीत में किया गया है। यह भी कालूयशोविलास की रचनाशैली का एक विशिष्ट नमूना है। अन्यथा दीक्षा का विवेचन विकेन्द्रित हो जाता। दीक्षा के साथ विशेष तपस्या करने वाले तथा गण-बाहर होने वाले साधु-साध्वियों का भी उल्लेख कर दिया गया है। कुल मिलाकर प्रस्तुत गीत चार वर्षों का दीक्षादर्पण है।
द्वितीय उल्लास कालूयशोविलास के प्रथम उल्लास की रचना का कार्य सम्पन्न होने पर ग्रन्थकार को जो प्रसन्नता हुई, उससे अग्रिम यात्रा की लालसा बढ़ गई। उस लालसा के वेग को रोकने में असमर्थ कवि पुनः अपने रचनाकार्य में प्रवृत्त होकर कृतार्थता का अनुभव करता है, यह दूसरे उल्लास के प्रारम्भ की प्रेरणा का संकेत संस्कृत भाषा में निबद्ध दो श्लोकों में मिलता है।
प्रत्येक उल्लास का आदि मंगल स्वतन्त्र है। प्रस्तुत उल्लास में भगवान महावीर की स्मृति करके उनके द्वारा प्रतिपादित स्याद्वाद के सिद्धान्त की पांच पद्यों में व्याख्या की गई है। प्रस्तुत व्याख्या अपनी गंभीरता के द्वारा ग्रन्थकार के वैदुष्य का दर्शन कराती है। इसके बारे में इतना ही कहना पर्याप्त है कि स्याद्वाद. सप्तभंगी, नय, प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय आदि गंभीर विषयों को इतने कम शब्दों में प्रस्तुत कर आचार्यश्री तुलसी ने अपने पाठकों को न्याय शास्त्र में प्रवेश करा दिया।
दूसरे उल्लास का प्रथम गीत कालूगणी के व्यापक सम्पर्कों का पहला झरोखा है। जर्मनी के ख्यातिप्राप्त विद्वान किसी संगोष्ठी में सम्मिलित होने के लिए जोधपुर आए। वहां तेरापंथी श्रावक उनसे मिले। श्रावकों ने जेकोबी को तेरापंथ का परिचय देकर कालूगणी से मिलने की प्रेरणा दी। जेकोबी का जिज्ञासु मन ज्ञानवृद्धि के लिए समुत्सुक था। उन्होंने लाडनूं जाने की बात स्वीकार कर ली। तेरापंथ का विरोध करने वाले लोगों को यह जानकारी मिली। वे नहीं चाहते थे कि इतने बड़े विद्वान कालूगणी से मिले। उन्होंने मरुस्थल की भयंकर सर्दी, वहां के साधारण खान-पान तथा दान-दया, पुण्य-पाप, प्रतिमापूजा आदि के बारे में तेरापंथ की
३० । कालूयशोविलास-१