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आशा! तुझ आशा फळी, संथारे की साच।
दृढ़ मन अधिक दिखावजे, रहे भिक्षुगण राच।। कालूगणी द्वारा प्रदत्त पत्र पढ़कर तपस्वी मुनि ने विशेष समाधि और आह्लाद का अनुभव किया। वि.सं. १९८६ चैत्र कृष्णा ७ को तपस्वी मुनि की जीवन-यात्रा संपन्न हुई।
१११. मुनि पांचीरामजी के अनशन के संदर्भ में आचार्यश्री तुलसी द्वारा कथित सोरठे और छप्पय
• मुनिवर पांचीराम, प्रबल भावना जो बणी।
पहुंचेवा सुरधाम (तो) अनशन कर लै विजय वर।। पटावरी परिवार, पैदा हो दम्पति तऱ्या। कर अनशन साकार, शासनध्वज फहरावसी।।
छप्पय पांचीराम पटावरी मोमासर रो संत, पायो परम प्रमोद स्यूं तारक तेरापंथ। तारक तेरापंथ तपोमय संयम साध्यो, मौनी बण अकषाय अनुत्तर पथ आराध्यो। अनशन दिन तेतीस रो जीवन झोक्यो अंत,
पांचीराम पटावरी मोमासर रो संत।। ११२. दीक्षा-पर्याय में छोटे-बड़े का क्रम छेदोपस्थापनीय चारित्र (बड़ी दीक्षा) के आधार पर रहता है। मुनि धनराजजी और चंदनमलजी की दीक्षा उनके संसारपक्षीय पिता मुनि केवलचंदजी से पहले हो गई थी। पिता को बड़ा रखने की दृष्टि से उनकी बड़ी दीक्षा छह मास बाद हुई।
११३. वि. सं. २०१२ में बारह मुनि धर्मसंघ से अलग हुए। कुछ सैद्धान्तिक और पारम्परिक प्रश्नों को लेकर वह घटना घटी थी, पर उसने इतना उग्र रूप धारण कर लिया कि वह वैचारिक जंग के रूप में परिणत हो गई। साध्वी कमलूजी (राजलदेसर) के संसारपक्षीय भाई मुनि छत्रमलजी भी उनके साथ थे। उस समय साध्वी कमलूजी के सामने दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गई। एक ओर भाई, दूसरी ओर धर्मसंघ। उस विकट समय में उन्होंने दृढ़ता का परिचय देते हुए कहा-'भाई हो या पिता, सब पीछे हैं। पहला स्थान धर्मसंघ और संघपति का है।' अपने ज्ञातिजनों की किंचित भी परवाह न करते हुए उन्होंने जिस निष्ठा और साहस का परिचय दिया, वह एक उदाहरण है। वे स्वयं अपने भाई मुनि
परिशिष्ट-१ / ३१५