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'श्री भीखू, भारमाल, ऋषराय, जयजश, मघवा, माणक, डालचंद, कालूराम सूं ऋषि लच्छीराम की अर्ज मालुम हुवै । आप कृपा महरवानगी कराय कर मनैं कोई खामी रो ओळुभो दिरावो तो हूं समभाव सूं अंगीकार करसूं, डंड दिरावो जिको पिण समभाव सूं पालसूं, और कोई क्रोधादिक करीने सामने बोलूं नहीं, मरजी उपरांत कोई बात करूं नहीं, आप म्हारो निभाव करावो, संजम को साज दिरावो, आप बड़ा हो, भरतक्षेत्र में तीर्थङ्कर देव समान आपनै जाणूं हूं, आप म्हारो संजम पळावो ।' संमत १६८६ पोष सुदि ५ अदीतवार ११०. मुनि आशारामजी (बालोतरा ) अष्टमाचार्यश्री कालूगणी द्वारा दीक्षि थे। वे बहुत मनोबली, सुदृढ़ संहननवाले और तपस्वी मुनि थे। गृहस्थ अवस्था में वे एक बार ऊंट पर यात्रा कर रहे थे । सहसा वे ऊंट से गिर पड़े और उनके हाथ की हड्डी टूट गई। उन्हें तत्काल डॉक्टर को दिखाया गया। डॉक्टर ने कहा - 'पक्का पट्टा बांधना पड़ेगा। वह पट्टा कम-से-कम तीन महीनों तक रहेगा ।' आशारामजी बोले- 'इतने समय तक मैं हाथ को बांधे नहीं रख सकता । और कोई उपाय हो तो बताओ।' डॉक्टर ने कहा - 'पक्के पट्टे के अतिरिक्त कोई उपाय कारगर नहीं होगा ।'
आशारामजी वहां से घर लौट गए और अपने पूर्वजों की अनुश्रुति के आधार पर कोयले पीसकर उन्हें तिलों के तेल में मिलाकर पी गए । कुछ दिनों में हाथ की हड्डी जुड़ गई और शरीर भी पहले की अपेक्षा अधिक हृष्ट-पुष्ट हो गया ।
हाथ ठीक होने के बाद वे पुनः डाक्टर से मिले । डाक्टर ने उनको पहचाना नहीं। उन्होंने अपने हाथ की हड्डी टूटने और पुनः जुड़ने की सारी बात डाक्टर को बताई तो वे विस्मित रह गए और विनोद में बोले- आप एक बार और ऊंट से गिरें तथा यही दवा लें तो अधिक मजबूत हो जाएंगे।
उनके जीवन की ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जो आश्चर्यकारक हैं । उनमें 'मन के तेरहिये'– (तेरह व्यक्ति एक मन घी को एक साथ खाने वाले), मासखमण तपस्या के पारणे में दाल का हलवा और पकोड़े खाना आदि उल्लेखनीय हैं
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दीक्षित होने के बाद मुनि आशारामजी ने जीवन भर एकान्तर तप किया । बीच-बीच में बड़ी तपस्याएं कीं। अंत में चाड़वास में अट्ठावन दिन की संलेखना में अनशन किया, जो पन्द्रह दिन बाद सानंद संपन्न हुआ । उस समय कालूगणी बीदासर थे। आपने अपने हाथ से तपस्वी मुनि को पत्र लिख संतों को चाड़वास भेजा। उस पत्र में एक दोहा था
३१४ / कालूयशोविलास-१