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________________ पर उनके परिणाम स्थिर नहीं हुए । आखिर स्वीकृत अनशन को न निभा सकने के कारण उन्हें संघ से बहिष्कृत कर दिया गया। गुरु की आज्ञा बिना किए गए कार्य में सफलता नहीं मिलती, तेरापंथ धर्मसंघ की इस धारणा को पुष्ट करने वाले ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं । ६५. आचार्यश्री कालूगणी चातुर्मास करने के लिए छापर पधारे। रेवतमलजी नाहटा के मकान से संलग्न नोहरे में प्रवचन का कार्यक्रम था। कार्यक्रम चल रहा था, उसी बीच सभा में हलचल हो गई । 'जोया' नामक जंतुओं का आक्रमण इतना तीव्र था कि श्रोताओं के लिए वहां बैठे रहना संभव नहीं रहा। ज्ञात हुआ कि वहां पहले खाद थी, उस पर बालू रेत बिछा दी गई । फलतः जोयों की उत्पत्ति हो गई। उस उपद्रव से बचने के लिए वहां से सारी रेत उठाई गई और पक्का आंगन बनवा दिया गया। आंगन बनते ही कुछ लोगों ने अफवाहें फैलाईं - यह आंगन साधुओं के लिए बना है, मगनजी स्वामी ने खड़े रहकर इसको तैयार करवाया है, आदि... । इन तथ्यहीन अफवाहों से वातावरण में एक उफान आया । यद्यपि उस आंगन से साधुओं का न तो कोई संबंध था और न उस पर बैठने से विध का अतिक्रमण होने वाला था। फिर भी समय और परिस्थिति के अनुरूप कालूगणी ने सब संतों को एकत्रित कर विशेष निर्देश देते हुए कहा - 'कोई भी साधु चातुर्मास की समाप्ति तक इस आंगन में पैर न रखे।' साधुओं ने इस निर्देश का बड़ी सतर्कता से पालन किया । एक दिन प्रमादवश एक मुनि उधर से चले गए। उन्हें प्राप्त प्रायश्चित्त ने सबको विशेष रूप से सजग कर दिया । ६६. तामली तापस ने साठ हजार वर्ष तक बेले- बेले तपस्या की । उसकी तपस्या की चर्चा देवों में थी और मनुष्यों में भी थी। उधर भवनपति देवों की राजधानी बलिचंचा में इन्द्र नहीं रहा । राजधानी के वरिष्ठ देवों - असुरों ने तामली तापस के पास पहुंचकर प्रार्थना की कि वे बलिचंचा में इंद्र होने के लिए 'निदान' ( मानसिक संकल्प) कर लें। तामली ने असुरों के इस निवेदन को स्वीकार नहीं किया । आयुष्य पूरा होने पर तपस्वी का साधना काल संपन्न हो गया । वह वैमानिक देवों के द्वितीय स्वर्ग 'ईशान' में इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। बलिचंचा के भवनपति देव इस घटना से अवगत हुए। अपने निवेदन पर ध्यान न देने के कारण उनका मन क्षोभ से भर गया । उन्होंने तामली के शव को अपने अधिकार में कर उसकी विडंबना की । परिशिष्ट-१ / ३०७
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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