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का उद्घाटन, कालूगणी के साथ संक्षिप्त बातचीत, डालगणी की मरुधर एवं मेवाड़ यात्रा, थली संभाग में पुनरागमन आदि अनेक बिन्दुओं का विवेचन प्रस्तुत उल्लास के आठवें गीत में उपलब्ध है।
नौवां गीत डालगणी के चूरू-प्रवास में कालूगणी के संस्कृत विद्याभ्यास से शुरू हुआ है। चूरू के श्रावक रायचन्दजी सुराणा सहज ही विद्यारसिक थे। पंडित घनश्यामदासजी से उनका अच्छा परिचय था। रायचन्दजी की प्रेरणा से उन्होंने अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया तो जैन साधुओं से द्वेष रखने वाले कुछ व्यक्तियों ने उनको बहकाने का बहुत प्रयास किया। किन्तु पंडितजी भ्रान्त नहीं हो पाए। संस्कृत व्याकरण के साथ कालूगणी ने शब्दकोश अभिधान-चिन्तामणि तथा नन्दी, उत्तराध्ययन आदि आगमों को भी कंठस्थ किया। कालूगणी बारह वर्षों तक डालगणी के सान्निध्य में रहे। अपनी चर्या और कर्तव्य के प्रति उनकी जागरूकता बेजोड़ थी। डालगणी जैसे कठोर अनुशास्ता के मन को जीतना बहुत कठिन होता है, पर कालूगणी इसमें पूर्ण सफल रहे। वि.सं. १६५६ से १६६६ तक मध्याह्रकालीन व्याख्यान कालूगणी ने दिया। इस प्रकार कालूगणी के अध्ययन और डालगणी के सान्निध्य में उनके कर्तृत्व का परिचय प्रस्तुत गीत में मिलता है।
तेजस्वी और यशस्वी व्यक्तित्व के स्वामी भी रोग से आक्रान्त होकर अपने मन के अनुकूल काम नहीं कर सकते, इसका उदाहरण है डालगणी के जीवन का सान्ध्यकाल। आखिरी दो वर्षों का समय उन्होंने लाडनूं में बिताया। वहां से विहार कर निकटवर्ती क्षेत्रों का स्पर्श करने की तीव्र इच्छा होने पर भी बीमारी ने उनको इतना अक्षम बना दिया कि विहार नहीं हो सका।
इधर स्वास्थ्य की गंभीर स्थिति, उधर संघ की भावी व्यवस्था। मुनिश्री मगनलालजी, साध्वीप्रमुखा जेठांजी, कालूरामजी जम्मड़ (सरदारशहर) आदि ने विनम्रता के साथ डालगणी का ध्यान आकृष्ट किया। डालगणी ने रूपचन्दजी सेठिया (सुजानगढ़) को याद किया। उनसे परामर्श करने के बाद डालगणी ने लेखन-सामग्री मंगवाई। वि.सं. १६६६, प्रथम श्रावण कृष्णा एकम के दिन डालगणी ने युवाचार्य-पत्र लिखा और उसे लिफाफे में बन्द कर पूठे में रख दिया।
सायंकालीन प्रतिक्रमण के बाद साधुओं की गोष्ठी बुलाकर डालगणी ने बता दिया कि उन्होंने संघ की भावी व्यवस्था कर दी है। युवाचार्य-पत्र में किसका नाम लिखा गया है ? इस जिज्ञासा के समाधान में डालगणी ने कहा- 'गुरुकुलवास में जितने साधु हैं, उनमें से एक का चयन कर मैंने उसका नाम पत्र में अंकित कर दिया। पर इस रहस्य का उद्घाटन किसी के सामने नहीं करना है। युवाचार्य का पत्र लिखा जा चुका है, इतनी-सी बात बताई जा सकती है।'
कालूयशोविलास-१ / २७