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गुरुदेव के इस निर्देश को विनयपूर्वक स्वीकार करते हुए जिज्ञासा की-'प्रभो! मेरी गलती पर कोई कहेगा तो मुझे तेला करना है। यदि कोई द्वेषवश भूल न होने पर भी गलती निकाले तो?' ।
आचार्य भिक्षु ने समाधान के स्वरों में कहा-'भारीमाल! तेला तो तुझे करना ही है। गलती पर तेला हो उसे वर्तमान दोष-विशोधन के लिए समझना और बिना गलती तेला हो उसे विशेष निर्जरा की दृष्टि से स्वीकार करना।' मुनि भारीमालजी के चेहरे की प्रसन्नता उनके समताभाव को द्विगुणित कर रही थी। कहा जाता है कि उन्हें अपने जीवन में केवल एक तेले की तपस्या करनी पड़ी।
७६. एक कल्पनाशील पथिक अशुभ कल्पनाओं के सृजन और उनकी अभिव्यक्ति में बहुत रस लेता था। जब तक वह अपनी सोची हुई बात कह नहीं देता, उसे संतोष नहीं होता। एक दिन वह किसी गांव में एक बुढ़िया के घर ठहरा। बुढ़िया राहगीरों को भोजन बनाकर खिलाती थी। बुढ़िया को चावल-मूंग की खिचड़ी बनाने का निर्देश देकर वह एक ओर बैठ गया। बुढ़िया चावल-मूंग भिगोकर दूसरे कार्य में व्यस्त हो गई।
इसी बीच बुढ़िया ने देखा कि राहगीर बैठा-बैठा सिर हिला रहा है। बुढ़िया ने पूछा-'क्या कर रहे हो?' वह बोला-ऐसे ही कोई बात मन में आ गई। 'क्या बात मन में आई है?' बुढ़िया द्वारा पुनः पूछे जाने पर वह बोला-'यह भैंस किसकी है?' बूढ़िया ने उत्तर दिया- 'मेरी है। राहगीर बोला- 'यह इतनी मोटी भैंस मर गई तो बाहर कैसे निकलेगी? तुम्हारे घर का दरवाजा तो इतना छोटा है। यह सुनते ही बुढ़िया उबल पड़ी-'अभी निकल घर से, आया है मेरी भैंस को मारने। जबान वश में नहीं रहती है। राहगीर ने माफी मांगकर जैसे-तैसे बुढ़िया को शान्त किया।
थोड़ी देर हुई, राहगीर फिर सिर हिलाने लगा। बुढ़िया ने पूछा-'अब फिर सिर क्यों हिला रहा है?' राहगीर बोला-'यह स्त्री कौन है?' 'यह मेरी पुत्रवधू है।' बुढ़िया के इस उत्तर पर उसने प्रतिप्रश्न किया-'तुम्हारा पुत्र कहां है?' 'वह व्यापार के लिए परदेश गया है।' बुढ़िया के ऐसा कहने पर वह बोला-'मांजी! तुमने इसके पति को परदेश भेजकर अच्छा नहीं किया। यदि वह वहीं पर मत्यु को प्राप्त हो गया तो इसकी क्या हालत होगी? इसने हाथ में जो चूड़ा पहन रखा है, यह बहुत छोटा है। इसे तो फिर फोड़कर ही निकालना पड़ेगा। राहगीर के इस कथन ने बुढ़िया को आपे से बाहर कर दिया। वह उसे कोसने लगी और बिना भोजन किए ही घर से निकल जाने के लिए कहा।
२६२ / कालूयशोविलास-१