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में अंगुलियां डाली और तेज गति से दौड़ा। सहसा उसके पांव में कांटा लग गया। अब कांटा न निकाले तो राजपुरुषों की पकड़ का भय और कांटा निकाले तो महावीर की वाणी का भय। राजपुरुषों से बचने के लिए उसने कानों से अंगुलियां हटाकर कांटा निकाला। भगवान की वाणी कानों में पड़ी। भगवान उस समय देवता के संबंध में चर्चा कर रहे थे- 'देवता के नयन अनिमिष होते हैं, मन में इच्छा करते ही उनका कार्य निष्पन्न हो जाता है, उनके गले का पुष्पहार म्लान नहीं होता तथा उनके पैर भूमि से चार अंगुल ऊपर रहते हैं।'
कांटा निकलते ही रोहिणेय कानों में अंगुलियां डालकर भाग गया। उसने भगवान के उक्त वचन अनमने भाव से सुने। अब वह उन्हें विस्मृत करना चाहता था। विस्मृति का जितना प्रयत्न, उतनी ही धारणा दृढ़ होती गई। वह भगवान की वाणी को भुला नहीं सका।
राजगृह में रौहिणेय का आतंक उत्तरोत्तर बढ़ रहा था। अभयकुमार ने अपने बुद्धिबल से उसे पकड़वा लिया, पर उसने अपने आपको शालिग्राम का व्यापारी बताकर बचाव कर लिया। अभयकुमार उसके प्रति संदिग्ध था। उसने उसके साथ मैत्री-संबंध स्थापित किया और अपने घर भोजन का निमंत्रण दिया। भोजन में कुछ मादक पदार्थ खिलाकर उसे मूर्छित कर दिया गया। स्वर्गीय वैभव से युक्त एक कक्ष में कुछ सुंदरियों ने अप्सराओं की भूमिका में उसके सामने प्रश्न किया-'आपने पिछले जन्म में क्या कर्म किया, जिससे आपको यह स्वर्गीय ऐश्वर्य उपलब्ध हुआ है?' रौहिणेय स्तब्ध था। वह कुछ कहे, उससे पहले ही उसे भगवान महावीर की वाणी याद आ गई-देवता अनिमिष नयन होते हैं, उनके पैर जमीन पर नहीं टिकते... । रौहिणेय अभयकुमार की कूटनीति को समझ गया। वह स्वयं को मनुष्यलोक का जीवित मानव बताकर वहां से मुक्त हुआ।
इस घटना के बाद रौहिणेय का मन बदल गया। उसने सोचा-मैंने बिना इच्छा भगवान महावीर के कुछ वाक्य सुने, उनसे मुझे जीवन मिल गया। यदि मैं भावपूर्वक भगवान की वाणी सुनकर उनका अनुगमन करूं तो न जाने मेरा कितना हित सध जाए। वह भगवान के समवसरण में गया। भगवान का प्रवचन सुन उसे आत्मग्लानि हुई। उसने चोरी छोड़ने के साथ ही अपना समग्र जीवन भगवान को समर्पित कर दिया।
___७५. आचार्य भिक्षु ने अपने भावी उत्तराधिकारी मुनि भारीमालजी को संबोधित करके कहा-'भारीमाल! तुम्हारी ईर्या समिति में कोई व्यक्ति दोष निकाले तो तुम्हें प्रायश्चित्तस्वरूप तीन दिन का उपवास करना है।' मुनि भारीमालजी ने
परिशिष्ट-१ / २६१