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हंस क्यों रहे थे ?” यह प्रश्न सुन मन्त्री स्तब्ध रह गए। वे बोले - 'नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।' राजा ने कुछ कठोर होकर कहा - 'मुझे सच सच बता दो ।' मन्त्री घबराए और अपनी हंसी का कारण बता दिया । राजा ने उनको लक्षित कर कहा - 'आप लोग वर्षों से मन्त्री हैं, पर अभी तक चिन्तन का स्तर कितना छिछला है। क्या आप यह सोचते हैं कि मैं बैठा-बैठा थक गया ।' मंत्रियों ने अपनी भूल स्वीकार की । उनकी प्रश्नायित आंखों में झांकता हुआ राजा बोला - ' सचिवो ! मैं बिलकुल नया हूं। राज्य संचालन का मेरा कोई अनुभव नहीं है । इस स्थिति में मेरे कार्य की सफलता आप लोगों की मन्त्रणा पर निर्भर करती है । मेरे मंत्रियों कंधे कितने मजबूत हैं, इसकी थाह पाने के लिए मैंने आपका सहारा लिया
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था ।'
मंत्री अपने राजा के उक्त तर्क को सुनकर अवाक हो गए। कल तक जिसे ठीक से बात करनी नहीं आती थी, आज वह इतना वाक्पटु बन गया। मंत्री के मुंह से सहसा बोल फूट पड़े- 'यह सब गद्दी का प्रभाव है ।'
३६. संघीय पुस्तकें तथा अन्य आवश्यक उपकरण जो संघ की संपदा है, उनका वजन सभी साधु-साध्वियों को लेना होता है। संघ द्वारा मान्य अवस्था और आचार्य द्वारा की गई बख्शीश इसमें अपवाद है ।
प्राचीन समय में समुच्चय के वजन का अनुपात चौवन वर्ष तक दो पुस्तकें (पांच किलो) और साठ वर्ष तक एक पुस्तक ( ढाई किलो) थी । साठ वर्ष के बाद समुच्चय के वजन से मुक्त समझा जाता था । सप्तम आचार्य श्री डालगणी के समय में स्थविर साधुओं के अधिक होने से वजन उठाने की समस्या हो गई । इस समस्या को समाहित करने के लिए आपने निर्देश दिया- 'गुरुकुलवास में रहने वाले सभी साधु-साध्वियों को दो पुस्तकों का वजन उठाना होगा । अवस्था-वृद्ध साधु-साध्वियां भी इसके अपवाद नहीं होंगे।'
लाडनूं में डालगणी का स्वर्गवास हुआ और कालूगणी ने संघ का दायित्व संभाला। चातुर्मास-समाप्ति के बाद लाडनूं से विहार के समय साधुओं की ओर से वजन के सम्बन्ध में पुनर्विचार के लिए निवेदन किया गया। कालूगणी ने डालगणी द्वारा निर्धारित विधान के अनुसार सब साधु-साध्वियों को दो पुस्तकों का वजन लेने का निर्देश दिया। वहां से सुजानगढ़ पहुंचने के बाद मंत्री मुनि श्री मगनलालजी के विशेष अनुरोध पर कालूगणी ने पुस्तकों की व्यवस्था पूर्ववत (चौवन वर्ष तक दो और साठ वर्ष तक एक ) लागू कर दी ।
आचार्यश्री तुलसी ने इस व्यवस्था में थोड़ा परिवर्तन कर ५४ और ६० वर्ष
२७० / कालूयशोविलास-१