SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१. पड़िमाधारी श्रमणभूत पिण, है आखिर गृहधारी रे, लौकिक तिणरो पोखणो। मात-पिता री सेवा लौकिक, लोकोत्तर संचारी रे, अंतरपथ अवलोकणो।। 'सुणज्यो मात-पिता री सेव, श्री गुरुदेव गावै जी। सज्जन-समझावण स्वयमेव, उपनय हेतु लगावै जी।। २२. सेवा सेवा में जो द्वैध, सावज-निरवद को है भेद। एकीभाव न भावै जी, एकीभाव न भावैजी।। २३. कीन्हो सुत नै शब्द सजोर, होकै हेत तमाखूखोर। दारक विनय दिखावै जी, दारक विनय दिखावै जी।। २४. छोड़ी ततखिण सारो काज, सांगोपांग सझाई साझ। होको हाथ झलावै जी, होको हाथ झलावै जी।। २५. करी प्रशंसा सुत री तात, पकड़ी नेय हर्ष स्यूं हाथ। होको गुड़गुड़ड़ावै जी, होको गुड़गुड़ड़ावै जी।। २६. बरसै झिरमिर-झिरमिर मेह, पवन-झकोळे डोलै देह। भारी भूख सतावै जी, भारी भूख सतावै जी।। २७. तेड़ी राजपूत निज पूत, होळे आखी यूं आकूत। आमिष आज सुहावै जी, आमिष आज सुहावै जी।। २८. चाल्यो नंदन हो हुशियार, ले निज हाथ सबल हथियार । मृगया खूब मचावै जी, मृगया खूब मचावै जी।। २६. ल्यायो जांगळ जुलम जमाय, आयो बाबाजी रै दाय। तळ-तळ भंज खुवावै जी, तळ-तळ भूज खुवावै जी।। ३०. बोल्यो बापू लख करतूत, वाह! वाह! बेटा! बड़ो सपूत। मुख स्यूं घणो सरावै जी, मुख स्यूं घणो सरावै जी।। ३१. दीन्हो अक्का यूं आदेश, पहिरी देश-देश रा वेश। पुत्री! पुरुष रिझावै जी, पुत्री! पुरुष रिझावै जी।। ३२. गणिका अम्बा-वच अवधार, चाली सझ सोळह सिणगार। जननी मन हुलसावै जी, जननी-मन हुलसावै जी।। १. लय : म्हारा लाडला जंवाई उ.३, ढा.६ / २०५
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy