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१४. जयाचार्य री योजना जी, सूत्र भगवती साख । कर कंकण क्यूं आरसी जी ? करो न कूड़ी हाक । । पेटी खोल प्रतापजी अब, सूत्र भगवती काढ़ । जती - जुगल नै सूंपियो जी, मन में हरस प्रगाढ़ || १६. खूब फरोळ्या पानड़ा जी, जति जुग सबल सहोश ।
१५.
मूल पाठ मिलियो नहीं जी, गुम होग्या सब होश । । १७. जैन जत्यां री एकदा जी, रही प्रतिष्ठा खास ।
संचित बल चारित्र से जी, अद्भुत विद्याभ्यास । । १८. अध्यापन अध्ययन में जी, अति श्रम करता सार्थ ।
प्राणार्पण नहिं हिचकता जी, पा जिन-मत परमार्थ ।। १६. गहन ग्रन्थ गौरव भर्या जी, रच भरता भण्डार ।
करता अनुसंधान स्यूं जी, नव-नव आविष्कार ।। २०. आज निहाय लोचनां जी, जतियां रो हालात ।
हिचकिचाट इक पाठ में जी, निज भगवति री बात ।। २१. दोन्यूं जती प्रतापजी अब, बोलै हो हैरान ।
कृपया पाठ निकाल कै जी, करो सूत्र -सन्धान । । २२. तदा भगवती ‘भगवती' जी, कर लीन्ही गुरुदेव ।
ततखिण अष्टम शतक रो जी, काढूयो पाठ स्वमेव । । २३. संभळायो समझावियो जी, चोभंगी रो लेख ।
बाल तपस्वी मोक्ष रो जी, देशाराधक देख ||
लावणी छंद
२४. है प्रथम भंग श्रुतरहित शीलयुत कोरो, मिथ्यादृष्टी अज्ञानी कोरो-मोरो । इक श्रुतयुत शीलरहीत उभय-युत तीजो, चोथो है उभय-रहीत पिछाण पतीजो || २५. है प्रथम भंग रो स्वामी बाल तपस्वी, देशाराधक शिवपथ रो बण्यो यशस्वी । तब आज्ञा-बाहिर क्यूं मिध्यात्वी - करणी ? निष्पक्ष निहारो आत्मसाधना-सरणी । । २६. मिश्री मीठी चाखै सम- मिथ्या-दृष्टी, खारो ही नमक रसज्ञा री सम सृष्टी ।
उ.२, ढा.७ / १३७