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द्वितीय उल्लास
द्रुतविलम्बित-वृत्तम् १. मुदितमित्थमहो मम मानसं,
फलितमंशमवेक्ष्य मनीषिणम् । असुहितेन तु तेन प्रधावितं,
पुनरहो मनसः स्थितिरीदृशी।। प्रथम उल्लास के रूप में अपने अभिलषित कार्य का एक अंश फलित देखकर मेरा मन प्रमुदित हो रहा है। पर लाभ लोभ को उभारता है, यह मन की स्वाभाविक स्थिति है। इसलिए वह अतृप्त भाव से पुनः आगे दौड़ रहा है।
२. तमथ मानसवेगमनाविलं,
समवरोद्ध मदःकृतयेऽप्रभुः। पुनरिति प्रयतः प्रकृते कृते,
ह्यनुभवानि यतः कृतकृत्यताम्।। इस कृति के लिए मैं अपने मन के पवित्र वेग को रोकने में असमर्थ हैं। अतः प्रस्तुत कार्य में पुनः प्रवृत्त होकर मैं कृतार्थता का अनुभव करता हूं।
उल्लास : द्वितीय / ११३