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'परीक्षामुखसूत्र' जैन-न - न्यायशास्त्र का आद्य - न्यायसूत्रग्रंथ है। इसके स्रोत का निर्देश करते हुये 'प्रमेयरत्नमाला' में कहा गया है—
अकलंकवचोऽम्भोधेरुद्दधे
येन
धीमता ।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥ 33
अर्थात् जिस श्रीमान् ने अकलंकदेव के वचन - सागर का मन्थन करके 'न्यायविद्यामृत' निकाला, उस माणिक्यनन्दि को नमस्कार है ।
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माणिक्यनन्दि 'नन्दिसंघ' के प्रमुख आचार्य थे। 'धारानगरी' इनकी निवास-स्थली रही है - ऐसा प्रमेयरत्नमाला की टिप्पणी तथा अन्य प्रमाणों से अवगत होता है । 34 माणिक्यनन्दि का समय नयनन्दी के समय विकम संवत् 1100 से 30-40 वर्ष पहले अर्थात् विक्रम संवत् 1060, ईस्वी सन् 1003 ( ईस्वी सन् की 11वीं शताब्दी का प्रथम चरण) अवगत होता है।
माणिक्यनन्दि का एकमात्र ग्रन्थ 'परीक्षामुख' ही मिलता है। इस ग्रन्थ का नामकरण बौद्धदर्शन के हेतुमुख, न्यायमुख जैसे ग्रन्थों के अनुकरण पर मुखान्त नाम पर किया गया है। परीक्षा - मुखसूत्र में प्रमाण और प्रमाणाभासों का विशद प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र आदि सूत्रग्रन्थों की तरह सूत्रात्मक शैली में लिखा गया है।
इस पर उत्तरकाल में अनेक टीका - व्याख्यायें लिखी गयी हैं। इनमें प्रभाचन्द्राचार्य का विशाल प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, लघु अनन्तवीर्य की मध्यमपरिणामवाली 'प्रमेयरत्नमाला', भट्टारक चारुकीर्ति का 'प्रमेयरत्नमालालंकार' एवं शान्ति वर्णी की 'प्रमेयकण्ठिका' आदि टीकायें उपलब्ध हैं। 'परीक्षामुखसूत्र' का प्रभाव आचार्य देवसूरि के 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' और आचार्य हेमचन्द्र की 'प्रमाणमीमांसा' पर स्पष्टतः दिखलाई पड़ता है । उत्तरवर्त्ती प्रायः समस्त जैननैयायिकों ने इस ग्रन्थ से प्रेरणा ग्रहण की है।
आचार्य प्रभाचन्द्र
आचार्य प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख पर 12,000 श्लोकप्रमाण 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड' नाम की वृहत् टीका लिखी है। यह जैनन - न्यायशास्त्र का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। प्रभाचन्द्र ने अपने को माणिक्यनन्दि के पद में रत कहा है। इससे उनका साक्षात् शिष्यत्व प्रकट होता है, अतः यह सम्भव है कि प्रभाचन्द्र ने जैन- -न्याय का अभ्यास माणिक्यनन्दि से किया हो और उन्हीं के जीवनकाल में 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड' की रचना की हो।
डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया के सप्रमाण अनुसन्धान के अनुसार प्रभाचन्द्र और माणिक्यनन्दि की समसामयिकता प्रकट होती है, और उनमें परस्पर साक्षात्
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ