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आचार्य कुमार या स्वामी कुमार अथवा कार्तिकेय
हरिषेण, श्रीचन्द्र और ब्रह्मनेमिदत्त के कथाकोषों में बताया गया है कि कार्तिकेय ने कुमारावस्था में मुनि-दीक्षा धारण की थी। उनकी बहन का विवाह 'रोहेड' नगर के राजा कौंच के साथ हुआ था और उन्होंने दारुण उपसर्ग सहन कर स्वर्गलोक को प्राप्त किया। वे 'अग्नि' नामक राजा के पुत्र थे। . आचार्य स्वामी कुमार ने 'बारस-अणुक्खा ' की रचना की। आप ब्रह्मचारी थे, इसी कारण आपने अन्त्य-मंगल के रूप में पाँच बाल-यतियों को नमस्कार किया है। आपने चंचल मन एवं विषय-वासनाओं के विरोध के लिये ये अनुप्रेक्षायें लिखी हैं। . स्वामी कार्तिकेय प्रतिभाशाली, आगम-पारगामी और अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य हैं। भट्टारक शुभचन्द्र ने इस ग्रन्थ पर विक्रम-संवत् 1613 (ईस्वी सन् 1556) में संस्कृत टीका लिखी है। इस टीका में अनेक स्थानों पर ग्रन्थ का नाम 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' दिया है और ग्रन्थकार का नाम 'कार्तिकेय-मुनि' प्रकट किया है।
स्वामी कार्तिकेय आचार्य गृद्धपिच्छ के समकालीन अथवा कुछ उत्तरकालीन हैं। अर्थात् विक्रम संवत् की दूसरी-तीसरी शती उनका समय होना चाहिये। द्वादशानुप्रेक्षा में कुल 489 गाथायें हैं। इनमें अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधदुर्लभ और धर्म – इन बारह अनुप्रेक्षाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। प्रसंगवश जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन सात तत्त्वों का स्वरूप भी वर्णित है। जीवसमास तथा मार्गणा के निरूपण के साथ, द्वादशव्रत, पात्रों के भेद, दाता के सात गुण, दान की श्रेष्ठता का माहात्म्य, सल्लेखना, दशधर्म, सम्यक्त्व के आठ अंग, बारह प्रकार के तप एवं ध्यान के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। आचार्य-स्वरूप एवं आत्मशुद्धि की प्रक्रिया भी इस ग्रन्थ में विस्तारपूर्वक समाहित है।
इस ग्रन्थ की अभिव्यंजना बड़ी ही सशक्त है। ग्रन्थकार ने छोटी-सी गाथा में बड़े-बड़े तथ्यों को संजोकर सहजरूप में अभिव्यक्त किया है। भाषा सरल और परिमार्जित है। शैली में अर्थसौष्ठव, स्वच्छता, प्रेषणीयता, . सूत्रात्कमता, अलंकारात्मकता समवेत है। 2. सारस्वताचार्य
_ 'सारस्वताचार्यों' से अभिप्राय उन आचार्यों से है, जिन्होंने प्राप्त हुई श्रुत-परम्परा का मौलिक ग्रन्थप्रणयन और टीका-साहित्य द्वारा प्रचार और प्रसार किया है। इन आचार्यों में मौलिक प्रतिभा तो रही है, पर श्रुतधरों के समान अंग और पूर्व-साहित्य का ज्ञान नहीं रहा है। इन आचार्यों में समन्तभद्र पूज्यपाद-देवनन्दि, पात्रकेसरी, जोइन्दु, ऋषिपुत्र, अकलंक, वीरसेन, जिनसेन, मानतुंग, एलाचार्य,
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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