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- खण्ड-एक जैनधर्म की पृष्ठभूमि और भगवान् महावीर
भारतवर्ष में निर्ग्रन्थ जैन-परम्परा की पृष्ठभूमि अत्यन्त प्राचीन और प्रतिष्ठित रही है। साथ ही इसकी यह भी विशेषता है कि जहाँ अन्य कई दर्शन और विचारधारायें उदित होकर अपनी निरन्तरता नहीं बना सकीं, वहीं जैनधर्म की परम्परा अनवरत प्रवहमान रही है। वर्तमान युग में करोड़ों वर्ष पूर्व हुये तीर्थंकर आदिब्रह्मा ऋषभदेव से लेकर आज से 2600 वर्ष पूर्व हुये चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर तक यह परम्परा अक्षुण्ण रही, तथा वर्तमानकाल में यह धर्म भगवान् महावीर की परम्परा के रूप में निरन्तर गतिशील होकर अपनी मौलिक-पहचान बनाये हुये है। इस सुदीर्घ काल में अनेक प्रकार के भौगोलिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवर्तनों के मध्य इसकी मौलिकता और परम्परा-मूलकता निरन्तर बनी रही है। वर्तमान युग में इसकी क्या स्थिति है, और भगवान् महावीर की परम्परा यहाँ तक कैसे पहुँची? - इसका संक्षिप्त लेखा-जोखा यहाँ प्रस्तुत करने का नैष्ठिक प्रयत्न किया जा रहा है। समसामयिकता की दृष्टि प्रधान होने के कारण यहाँ वर्तमान संदर्भो से बात प्रारम्भ होगी।
बीसवीं सदी के अन्तर्गत दिगम्बर जैन समाज के वैचारिक व सामाजिक दर्शन के अध्ययन के लिये यह आवश्यक है कि इस काल के जैन समाज के स्वरूप की विश्लेषणात्मक प्रस्तुति की जाये। भारतीय इतिहास की परम्परा में जैन व बौद्धधर्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व अस्तित्व में आये। किन्तु जैनधर्म पर आधारित शोधकार्यों से ही यह सिद्ध हो चुका है कि जैनधर्म पूर्णतः प्रागैतिहासिक धर्म है। पं. जवाहरलाल जी नेहरू ने अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इण्डिया' में स्पष्ट रूप से घोषित किया है कि "जैन इस देश के मूल-निवासी हैं" - इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म और संस्कृति भारत में प्राचीनतम है।
_ "एक समय था जब जैनधर्म को बौद्धधर्म की शाखा समझ लिया गया था, किन्तु अब वह भ्रान्ति दूर हो चुकी है और नई खोजों के फलस्वरूप यह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्म से न केवल एक पृथक् और स्वतंत्र धर्म है, किन्तु उससे बहुत प्राचीन भी है। अब अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर को जैनधर्म का संस्थापक नहीं माना जाता और उनसे अढ़ाई सौ वर्ष पहले होने वाले भगवान्
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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