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रहता था। बाद में भारत से सम्पर्क दूर हो जाने पर इन जैन-श्रमण साधुओं ने बौद्धधर्म से सम्बन्ध स्थापित कर लिया। चीन और जापान में ये लोग आज भी जैन-बौद्ध कहलाते हैं।
मध्य एशिया और दक्षिण एशिया – लेनिनग्राड स्थित पुरातत्त्व-संस्थान के प्रोफेसर 'यूरि जेडनेयोहस्की' ने 20 जून सन् 1967 को नई दिल्ली में एक पत्रकार सम्मेलन में कहा था कि "भारत और मध्य एशिया के बीच सम्बन्ध लगभग एक लाख वर्ष पुराने हैं। अतः यह स्वाभाविक है कि जैनधर्म मध्य एशिया में फैला हुआ था।"2
प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासवेत्ता श्री जे. ए. दुबे ने लिखा है कि आक्सियाना, कैस्मिया, बल्ख और समरकंद नगर जैनधर्म के आरम्भिक केन्द्र थे। सोवियत आर्मीनिया में नेशवनी नामक प्राचीन नगर हैं। प्रोफेसर एम. एस. रामस्वामी आयंगर के अनुसार जैन-मुनि-संत ग्रीस, रोम, नार्वे में भी विहार करते थे। श्री जान लिंगटन आर्किटेक्ट एवं लेखक नार्वे के अनुसार नार्वे म्यूजियम में ऋषभदेव की मूर्तियाँ हैं। वे नग्न और खड्गासन हैं। तर्जिकिस्तान में सराज्य के पुरातात्त्विक उत्खनन में पंचमार्क सिक्कों तथा सीलों पर नग्न मुद्रायें बनी हैं, जोकि सिंधु-घाटी-सभ्यता के सदृश है। हंगरी के 'बुडापेस्ट' नगर में ऋषभदेव की मूर्ति एवं भगवान् महावीर की मूर्ति भू-गर्भ से मिली है।
ईसा से पूर्व ईराक, ईरान और फिलिस्तीन में जैन-मुनि और बौद्ध भिक्षु हजारों की संख्या में चहुँओर फैले हुये थे, पश्चिमी एशिया, मिर, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित श्रमण-साधु रहते थे, जो अपने त्याग और विद्या के लिये प्रसिद्ध थे। ये साधु नग्न थे। वानक्रेपर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित समानिया-सम्प्रदाय 'श्रमण' का अपभ्रंश है। यूनानी लेखक मित्र एचीसीनिया और इथियोपिया में दिगम्बर-मुनियों का अस्तित्व बताते हैं।
प्रसिद्ध इतिहास-लेखक मेजर जनरल जे.जी. आर-फलांग ने लिखा है कि अरस्तू ने ईस्वी सन् से 330 वर्ष पहले कहा है, कि प्राचीन यहूदी वास्तव में भारतीय इक्ष्वाकु-वंशी जैन थे, जो जुदिया में रहने के कारण 'यहूदी' कहलाने लगे थे। इसप्रकार यहूदीधर्म का स्रोत भी जैनधर्म प्रतीत होता है। इतिहासकारों के अनुसार तुर्कीस्तान में भारतीय-सभ्यता के अनेकानेक चिह्न मिले हैं। इस्तानबुल नगर से 570 कोस की दूरी पर स्थित तारा तम्बोल नामक विशाल व्यापारिक नगर में बड़े-बड़े विशाल जैन-मंदिर, उपाश्रय, लाखों की संख्या में जैन-धर्मानुयायी, चतुर्विध-संघ तथा संघपति-जैनाचार्य अपने शिष्यों-प्रशिष्यों के मुनि-सम्प्रदाय के साथ विद्यमान थे। आचार्य का नाम उदयप्रभ सूरि था। वहाँ का राजा और सारी प्रजा जैन-धर्मानुयायी थी।
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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