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लगभग 15 वर्ष की अवस्था में मातृ-वियोग, 27 वर्ष की अवस्था में पितृ-वियोग और लगभग 40 वर्ष की अवस्था में पत्नी वियोग हो गया । संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति हो गई। बाल-बच्चों को अपनी बहन को सौंपकर गृह-विरत हो गये। पहले आपने 1906 में 'क्षुल्लक दीक्षा' ली और केवल तीन माह बाद 'ऐलक दीक्षा' ग्रहण कर ली और निरन्तर ध्यान - स्वाध्याय में लीन रहने लगे। जब मुनिव्रत पालन का अच्छा पूर्वाभ्यास हो गया, तब विक्रम संवत् 1914 मार्गशीर्ष शुक्ला 2, मंगलवार को प्रातः 10 बजे मूल नक्षत्र में कुन्थलगिरि क्षेत्र में श्री जिनेन्द्रदेव की साक्षीपूर्वक मुनिदीक्षा अंगीकार कर ली ।
उस समय निर्ग्रन्थ-जैन मुनियों एवं आचार्यों का अभाव-सा पाया जाता था। ऐसे समय में आपने सर्वप्रथम जैनेश्वरी दीक्षा लेकर सारे देश में तहलका मचा दिया। भव्य बन्धुवृन्द अब तक केवल दिगम्बर जैन मुनियों की चर्चा सुनते थे; परन्तु अब साक्षात् मुनिवर के दर्शन पाकर अपने आपको धन्य अनुभव करने लगे। दीक्षा के बाद दक्षिण भारत के अनेक ग्रामों में आपने मंगलविहार किया और धर्मामृत की वर्षा की। धर्म-बन्धुओं में धर्मभावना की जागृति हुई। आप 'कोन्नून' की गुफा में उग्र तप करते थे। जन्मजात बैर रखने वाले जीवों ने आपकी प्रशान्त - मुद्रा से प्रभावित होकर वैर का वमन कर दिया और भी बहुत से अतिशय हुये ।
आपकी अन्तिम 'दिव्य-देशना' पर पूज्य आर्यिका विजयमती जी ने अच्छी पुस्तक लिखी है। 20वीं शताब्दी के कतिपय वर्षों पहले जो दिगम्बर - मुनि - परम्परा समाप्त हो चुकी थी, उसको आपकी मुनि दीक्षा द्वारा नव-जीवन मिला; क्योंकि आपने मुनि दीक्षा लेने के पश्चात् दक्षिण भारत में विहार किया और धर्मामृत की वर्षा द्वारा जैनधर्म की महान् प्रभावना में वृद्धि की।
3. आदिसागर भोसेकर
आदिसागर भोसेकर जिनका नम्बर तीन था, वे 'जोभोसंगी स्वामी' के नाम से प्रसिद्ध थे।
4. आदिसागर भोज
चौथे आदिसागर 'भोजग्राम' के थे। आप पहिले 'रत्नप्पा स्वामी' के नाम से जाने जाते थे।
आचार्य शांतिसागर जी (दक्षिण)
आचार्य शांतिसागर जी महाराज 20वीं शताब्दी के महान् आचार्य थे। वे निर्ग्रन्थ- परम्परा के समर्थ प्रचारक थे। आचार्यश्री यद्यपि दाक्षिणात्य थे, लेकिन आचार्य-अवस्था में उत्तर - भारत में जाकर निर्ग्रन्थ-जीवन का भरपूर प्रचार किया और
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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