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विद्वान् थे। भट्टारक गुणचन्द्र का समय विक्रम संवत् 1613 - 1653 है। भट्टारक गुणचन्द्र की संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओं में रचनायें पायी जाती हैं। संस्कृत रचनायें इस प्रकार हैं- अनन्तनाथ पूजा एवं मौनव्रतकथा, जबकि हिन्दी रचनायें हैं दयारसरास 16, राजमतिरास, आदित्यव्रतकथा, बारहमास, बारहव्रत, विनती, स्तुति नेमिजिनेन्द्र, ज्ञानचेतनानुप्रेक्षा, एवं फुटकर - पद ।
आचार्य नरेन्द्रसेन
नरेन्द्रसेन सेनगण पुष्करगच्छ की गुरु- परम्परा में छत्रसेन के पट्टाधिकारी हुये हैं। नरेन्द्रसेन तर्कशास्त्री विद्वान् थे। 'प्रमाणप्रमेयकलिका' इन्हीं छत्रसेन के शिष्य नरेन्द्रसेन की है। इनका समय विक्रम संवत् 1787 - 1790 ( ईस्वी सन् 1730-1733 ईस्वी) है। 17
नरेन्द्रसेन की 'प्रमाणप्रमेयकलिका' न्यायविषयक रचना है। इसमें प्रमाणतत्त्वपरीक्षा और प्रमेयतत्त्वपरीक्षा निबद्ध की गयी है। यह लघुकाय ग्रन्थ प्रमाण और प्रमेय-सम्बन्धी विषयों की दृष्टि से विशेष उपादेय है।
आचार्य धर्मकीर्ति
ये मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण के आचार्य थे। इनकी दो रचनायें उपलब्ध हैं. पद्मपुराण और हरिवंशपुराण । धर्मकीर्ति का समय विक्रम की 17वीं
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शताब्दी है।
भट्टारक- परम्परा के क्षीण होने के कारण
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राजस्थान में जहाँ भट्टारकों का अत्यधिक प्रभाव था, वहाँ उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। भट्टारकों के पतन के कारण निम्नलिखित कहे जा सकते हैं 19वीं शताब्दी से ही भट्टारकों में उच्चकोटि की विद्वत्ता समाप्त हो गई। आगम एवं सिद्धांत-ग्रंथों की व्याख्या, पठन-पाठन कराने में वे असफल रहे। प्रवचन करने एवं श्रावकों को आकर्षित करने में भी वे अक्षम सिद्ध रहे। भट्टारकों के पतन का एक कारण मुनिधर्म का वापिस जागृत होना भी है। निर्ग्रन्थ-मुनियों के विहार से सर्वत्र भट्टारकों के प्रति वैसे ही समाज की श्रद्धा कम हो गई। मुनियों के सामने उनकी प्रतिष्ठा भी कम होती गई। समाज में जागृति आयी, पंचायतों में मन्दिरों के प्रबंध का उत्तरदायित्व स्वयं ने ले लिया। पद की अभिलाषा, समाज पर प्रभाव जैसे कार्य भी भट्टारक- परम्परा की समाप्ति में सहायक बने ।
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एक भट्टारक की समाप्ति हो जाने के पश्चात् उनकी गादियाँ बहुत वर्षो तक खाली पड़ रहीं और किसी ने उस पर योग्य व्यक्ति को नहीं बिठाया; इसलिये जब खाली गादी से भी समाज का कार्य चलने लगा, तो फिर समाज
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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