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सोलहकारणपूजा, द्वादशानुप्रेक्षा, गणधरवलयपूजा एवं समाधिमरणोत्साहदीपक । राजस्थानी भाषा में लिखित रचनायें इस प्रकार हैं आराधनाप्रतिबोधसार, नेमीश्वर-गीत, मुक्तावली - गीत, णमीकार - गीत, पार्श्वनाथाष्टक, सोलककारणरासो, शिखामणिरास, एवं रत्त्रयरास ।
निःसन्देह आचार्य सकलकीर्ति अपने युग के प्रतिनिधि लेखक हैं। इन्होंने अपने पुराण-विषयक कृतियों में आचार्य - परम्परा द्वारा प्रवाहित विचारों को ही स्थान दिया है । चरित्रनिर्माण के साथ सिद्धान्त, भक्ति एवं कर्म-विषयक रचनायें परम्परा के पोषण में विशेष सहायक हैं।
भट्टारक भुवनकीर्ति
सकलकीर्ति के प्रधान शिष्यों में भट्टारक भुवनकीर्ति की गणना की गयी है। सकलकीर्ति के 33 वर्षों के पश्चात् भुवनकीर्ति को विक्रम संवत् 1532 में भट्टारक - पद मिला होगा। आचार्य भुवनकीर्ति विविध भाषाओं और शास्त्रों के ज्ञाता थे। इन्हें विभिन्न कलाओं का परिज्ञान भी था । भुवनकीर्ति के सम्बन्ध में ब्रह्मजिनदास, भट्टारक ज्ञानकीर्ति आदि ने बताया है कि पहले ये मुनि रहे हैं और सकलकीर्ति की मृत्यु पश्चात् इन्हें भट्टारक- पद प्रदान किया गया है। भुवनकीर्ति ने ग्रन्थ-रचना के साथ-साथ प्रतिष्ठायें भी करायी थीं।
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आचार्य भुवनकीर्ति के 'जीवन्धररास', 'जम्बूस्वामीरास' और 'अंजनाचरित' ग्रन्थ उपलब्ध हैं। ‘जीवन्धररास' में जीवन्धर के पुण्यचरित का और 'जम्बूस्वामीरास ' में जम्बूस्वामी के पावन चरित का रासशैली में वर्णित किया गया है।
आचार्य ब्रह्मजिनदास
ब्रह्मजिनदास संस्कृत के महान् विद्वान् और कवि थे। ये कुन्दकुन्दान्वय, सरस्वतीगच्छ के भट्टारक सकलकीर्ति के कनिष्ठ भ्राता और शिष्य थे। बलात्कारगण की ईडर शाखा के सर्वाधिक प्रभावक भट्टारक सकलकीर्ति के अनुज होने के कारण इनकी प्रतिष्ठा अत्यधिक थी ।
इनकी माता का नाम 'शोभा' और पिता का नाम 'कर्णसिंह' था। ये पाटन के रहनेवाले तथा 'हूंवड़' जाति के श्रावक थे। इन्होंने गुरु के रूप में सकलकीर्ति का आदरपूर्वक स्मरण किया है। ब्रह्मजिनदास का समय विक्रम संवत् 1450-1525 होना चाहिये। ब्रह्मजिनदास ग्रन्थ रचयिता होने के साथ कुशल उपाध्याय भी थे। इनकी रचनायें दो भाषाओं में हैं की रचनायें इस प्रकार हैं जम्बूस्वामीचरित, रामचरित, हरिवंशपुराण, पुष्पांजलिव्रतकथा, जम्बूद्वीपपूजा, सार्द्धद्वयद्वीपपूजा, सप्तर्षिपूजा, ज्येष्ठिजिनवरपूजा, सोलहकारणपूजा, गुरुपूजा, अनन्तव्रतपूजा, एवं जलयात्राविधि। राजस्थानी-भाषा में
संस्कृत एवं राजस्थानी । संस्कृत भाषा
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ