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अलबेली आम्रपाली ७५ में पुन: वाद्यों की झंकार होने लगी। संकड़ों मिलने-जुलने वाले उस प्रासाद में आने लगे।
सायंकाल के समय शीलभद्र अपने दो साथियों के साथ वहां आया।
माध्विका कुमार शीलभद्र को आदर सहित देवी आम्रपाली के विधामखंड में ले गयी। शीलभद्र ने आम्रपाली का अभिवादन करते हुए कहा-"आप शोक से निवृत्त हुई हैं, यह जानकर वैशाली के समस्त जन प्रसन्न हुए हैं।
एक परिचारिका मैरेय का स्वर्ण पात्र ले आयी। माध्विका ने शीलभद्र और उसके साथियों के समक्ष मैरेय से भरे स्वर्ण पात्र रखे।
शीलभद्र बोला-"देवि ! आप..।"
"आप ही लें। मैरेय मेरी प्रकृति के अनुकूल नहीं है।" आम्रपाली ने मधुर स्वरों में कहा।
मैरेय का एक चूंट लेते हुए शीलभद्र बोला-"देवि ! यहां प्रतिवर्ष श्रावण मास में पांच दिनों का वन-महोत्सव होता है। उसमें जनपदकल्याणी महोत्सव की शोभा होती है।"
"हां, गणसभा से मुझे निमंत्रण मिल चुका है।" आम्रपाली ने कहा।
"देवि ! यह वन महोत्सव अपनी सीमा के पास आयोजित होता है । उसमें हजारों नर-नारी शामिल होते हैं, मनोरंजन करते हैं । उस अवसर के लिए मैं आपको एक विशेष निमंत्रण देना चाहता हूं। वैशाली की सीमा से सटकर एक नदी बहती है। उसके दूसरे तट के आसपास पर्वतश्रृंखला है। वहां आखेट के लिए आप हमारा साथ दें, इसका वचन लेने आया हूं।"
"शिकार ?" "हां, देवी ! उस भयंकर वन में सिंह, बाघ, वराह आदि रहते हैं । "आप सिंह का शिकार करते हैं ?" "हंसते-हंसते..।" "मैं आपका साथ दूंगी। मुझे वन्य-जन्तु देखने का शौक है।"
"मैं धन्य हुआ। मैं स्वयं आपको लेने आ जाऊंगा।" कहते हुए शीलभद्र ने मैरेय का पात्र खाली कर परिचारिका को दे दिया।
शीलभद्र के जाने के बाद माध्विका ने कहा- ''देवि ! यह निमंत्रण तो भयंकर है।"
__"माध्विका! आर्य शीलभद्र के भुजबल को देखने के लिए ही मैंने यह निमंत्रण स्वीकार किया है। मेरी यह मान्यता है कि जो वाचाल होता है वह अपने कर्तव्य में शिथिल होता है।" आम्रपाली ने कहा।
वनमहोत्सव की तैयारी होने लगी।