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३४६ अलबेली आम्रपाली
"मेरे कार्य में कुछ भी सहयोग नहीं करती परन्तु तू सहयोग न करे, इससे पांच लाख स्वर्ण मुद्राएं बच नहीं सकतीं।" सुदास ने कहा।
पद्मरानी ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वह सुदास को भोजन परोसने लगी। मनोरमा बाहर खड़ी थी और पद्मरानी को पता न लगे इस प्रकार दोनों की बातें सुन रही थी। पद्मरानी ने कुछ नहीं कहा। इससे मनोरमा के मन को बहुत व्यथा हुई। उसने सोचा, यह नारी पत्थर जैसी है। कुछ भी नहीं समझती। ___भोजन का प्रथम ग्रास लेते हुए सुदास बोला-"मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला...।"
"उत्तर देने जैसा प्रश्न ही कहां है ? पत्नी को शोभे, वैसा कार्य आपने मुझे दिया ही नहीं । फिर सहयोग का प्रश्न ही क्या है।"
"ओह ! मैं सोच ही रहा था कि तेरा सहयोग नहीं मिलेगा।"
"पुरुष सदा स्त्री में दोष निकालता है। परन्तु यदि यथार्थ में देखा जाए तो पुरुष के दोषों को पचाने के लिए ही स्त्री को जीवन भर व्यथित होना पड़ता है" पदमरानी ने थाल में मिष्टान्न रखते हुए कहा।
"तो तू मेरा एक काम करेगी?"
"देवी आम्रपाली जब यहां आएं तब तुझे उत्तमोत्तम वस्त्रालंकारों से सजधज कर उसके स्वागत के लिए तैयार रहना है।"
"अरे ! आप थाली की ओर देखें । बात ही बात में खाना भूल गए तो।" "मेरी बात का..."
"किसी भी अतिथि का आदरभाव से सत्कार करना गृहिणी का कर्तव्य होता है''आप निश्चिन्त रहें. मैं आपके गौरव को आंच भी नहीं आने दूंगी।"
"आश्वासन मिला प्रिये !" कहकर सुदास भोजन करने लगा।
बाहर खड़ी मनोरमा को यह वार्तालाप पसन्द नहीं आया। वह चाहती थी कि दोनों के बीच विस्फोट हो जाए तो अच्छा। यदि ऐसा होता है तो सुदास के अन्तर में पद्मा के प्रति जो गुप्त आकर्षण है, वह नष्ट हो सकता है, अन्यथा नहीं। पद्मरानी बड़ी विचित्र है। बाहर जितनी छोटी है, उतनी ही जमीन में समाई हुई लगती है।
वहां सप्तभूमि प्रासाद में देवी आम्रपाली ने भोजन के बाद कुछ विश्राम कर तत्काल माध्विका से कहा- "माधु ! क्षत्रियकुंड ग्राम जाने की तैयारी कर।"
"परन्तु अभी बहुत समय है। आपको तो सन्ध्या के समय आर्य सुदास के यहां पहुंचना है।"