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३१२ अलबेली आम्रपाली
बिंबिसार ने देखा, वही शयनकक्ष, वही रौनक, वही माधुरी, दीपमालिकाओं का सुगन्धित प्रकाश, दीपदान में से निकलती दशांग धूप की सुगन्ध' दीवार के चित्र । हां, इनमें कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ था । देवी के अनेक तात्कालिक चित्र वहां टंगे थे। बिंबिसार ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई · · 'अरे ! पद्मरानी का चित्र कहां है ? उसने माध्विका से पूछा- "माधु ! पद्मरानी...?"
... "महाराज ! आपकी वह कन्या अति सुन्दर थी 'मां से भी ज्यादा सुन्दर ! किन्तु अत्यन्त व्यथित हृदय से उसका त्याग करना पड़ा है. 'उसकी कोई भी स्मृति यहां नहीं रखी है। क्योंकि यदि देवी अपनी स्मृति को न रोक सकें और उसे देखने निकल पड़ें तो आपत्ति आ जाए, यही ज्योतिषी का कथन था।" माध्विका ने कहा।
"ओह ! परन्तु अब वह कहां है, यह तो तू जानती ही होगी?"
"हां, महाराज ! परन्तु आपको भी मैं बता सकू, यह स्थिति नहीं है । विपत्ति आपको भी भोगनी पड़े। इसलिए।"
"ओह ! नियति का कैसा विचित्र विधान ! माता-पिता अपनी सन्तान को देख नहीं सकते 'खिला नहीं सकते ''अपने हृदय के प्रेम से उसे भिगो नहीं सकते । क्या इससे भी बड़ा कोई अभिशाप माता-पिता को हो सकता है ?" बिंबिसार ने वेदना भरे स्वरों से कहा।
माध्विका ने बिंबिसार को एक आसन पर बिठाते हुए कहा-"महाराज ! अब देवी स्नानगृह से निकलेंगी 'आप यहीं बैठे रहें 'मैं उनके वस्त्र रखकर आती हूं।"
"अच्छा ! पर तू मेरी वीणा तो यहीं रखकर जा।"
"जैसी आज्ञा ।" कहकर माध्विका ने महाबिंब वीणा लाकर बिबिसार के पास रख दी और स्वयं नमन कर चली गयी। ___ बिंबिसार ने देखा, वीणा का कोई तार टूटा हुआ नहीं था। वीणा स्वच्छ थी 'कोई रजकण उस पर नहीं था. प्रियतम की स्मृति को कितनी सजगता से सम्भालकर रखा है !
बिंबिसार ने वीणा पर स्वर-संधान प्रारम्भ किया।
देवी आम्रपाली स्नानगृह से निकलकर पास वाले वस्त्रगृह में गयी। उसके केश खुले थे और एक दासी उसको उठाए पीछे-पीछे चल रही थी। उसके नयनों में वही चमक-दमक थी, उसकी काया में वही यौवन का उभार था और उसके रूप में वही तेज था।
उस समय वह समस्त चिन्ताओं से मुक्त किसी दिव्य योगिनी-सी दिख रही थी। माध्विका ने वस्त्र अलंकारों के थाल व्यवस्थित कर रखे थे। देवी आम्रपाली एक विशाल दर्पण के सामने पड़े आसन पर बैठ गयी।