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३०६ अलबेली आम्रपाली
कि वह तेरे समाचार मुझे बताए और मैं तत्काल गुप्त वेश में तेरा जयकीत बनकर वहां आऊं। ____ मुझे एक विस्मय होता ही है। पुरुष अन्य उपाधि के कारण अपनी प्रिय वस्तु को सम्भव है भूल जाए, किन्तु समर्पण और त्याग की मूर्ति के समान तेरी ममता, अपनी प्रिय वस्तु को कभी नहीं भूल सकता । प्रिये ! मैंने तुझे कभी विस्मृत नहीं किया है। कल तक मैं एक सामान्य युवराज था, आज मगध का अधिपति हूं। परन्तु तेरे समक्ष तो मैं वही हूं तेरा प्रियतम। आश्चर्य तो यह है कि त मुझे कैसे भूल गयी ! मेरे में यदि कोई अपराध दीखता हो तो मुझे क्षमा करने की तुझमें उदारता तो है ही। तुझमें विष की चूंट पीने की भी शक्ति है । फिर भी यह क्यों और कैसे ?
मुझे यदा-कदा समाचार मिलते हैं कि तू नृत्य, गीत और मस्ती में अलबेली बनी है । तेरी प्रशंसा चारों ओर रजनीगंधा के पुष्प की सौरभ की भांति विस्तृत हुई है । दूर-दूर के लोग तेरी कला का दर्शन करने आते रहते हैं।
ऐसे तू कला की उपासना में अपनी समग्र वृत्तियों को नियंत्रित किए हुए है। फिर भी हम दोनों की प्रीति के बंधन इतने कच्चे नहीं हैं कि वे टूट जाएं, छूट जाएं या बिखर जाएं।
धनंजय मेरा विश्वासपात्र व्यक्ति है, यह तू जानती भी है। इसके साथ संदेश भेजना । तुम से मिलने के लिए मैं इतना आतुर हो गया हूं कि पल-भर भी मेरा मन यहां नहीं लगता।
कदाचित् तेरा संदेश नहीं भी मिलेगा तो भी मैं तुझसे मिलने एक बार आऊंगा और मगध की महादेवी के आसन पर बिठाने हेतु तुझे ले आऊंगा।
मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि तूने अपने कन्यारत्न को कहीं अन्यत्र भेज दिया है। उस ज्योतिषी की बात याद आती है। उसको देखने की उत्कट भावना है। परन्तु वह कैसे पूरी हो ? पद्मसुन्दरी कहां है, बताना। तेरे मधुर संस्मरण मेरे हृदय में संचित हैं । कुछ ही समय पश्चात् मैं मिलने के लिए आने ही वाला हूं। तुम्हारा-जयकीति।" ___ और दूसरे दिन यह पत्र धनंजय को देकर उसे वैशाली की ओर रवाना किया।
किन्तु बिबिसार के सामने एक प्रश्न यह था कि यहां से कैसे जाया जाए? वैशाली में अकेले जाना, किसी को जचेगा नहीं । मन्त्रीगण जाने ही नहीं देंगे और बिना किसी को कहे, जाना भी नहीं हो सकता।
दूसरे दिन धनंजय के जाने के पश्चात् बिबिसार ने वर्षाकार के साथ इधरउधर की बातें करते हुए कहा-"मित्र ! मेरा विचार है कि कुछ दिनों के लिए मैं गुप्त वेश में मगध का पर्यटन करूं।"