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२९२ अलबेली आम्रपाली
देना। प्रिये ! मिलन से भी अधिक श्रेष्ठ होता है विरह । क्योंकि विरह की अग्नि से ही स्वर्ण की परीक्षा होती है।
लिखने के लिए इतने विचार उमड़ रहे हैं कि जीवनभर लिखता चलूं तो भी पूरे विचार नहीं लिख पाऊंगा। मैं एक पांथशाला में हूं। मध्य रात्रि का समय है। तेरी ही कल्पना किए उड़ता चला जा रहा हूं। __राजगही जाने के वाद मगधेश्वर को कुछ ठीक होगा तो मैं तुझसे मिलने अवश्य आऊंगा।"
इस प्रकार पत्र लिखकर एक नलिका में रख बिंबिसार सो गया।
दूसरे दिन एक सैनिक को पत्र देकर वैशाली की ओर रवाना किया। धनंजय ने उस सैनिक को सारी सूचना दे दी।
फिर प्रवास त्वरा से होने लगा। बिबिसार चौदहवें दिन राजगृही पहुंच गया।
महामंत्री ने बड़े उल्लासपूर्ण वातावरण में स्वागत किया। बिंबिसार का बाल साथी वर्षाकार उसके गले लिपट गया।
युवराज बिबिसार वस्त्र बदलकर सीधा मगधेश्वर के खंड की ओर गया।
६०. प्रश्नतीर मगध के महामंत्री ने धनंजय को एकान्त में बुलाकर एक बात कही-"धनंजय ! एक क्षण के लिए भी युवराज श्रेणिक को अपनी दृष्टि से ओझल मत रखना। विशेष रूप से महादेवी की ओर से पूर्ण सावधानी रखना।"
जब बिंबिसार वस्त्र बदल कर मगधेश्वर के पास गया तब धनंजय भी उसकी परछाई की भांति पीछे-पीछे गया । बिबिसार ने कहा-"धनंजय ! तू अपने घर जा''अपने परिवार के लोगों से मिलकर आना' ''अभी यहां तेरा कोई विशेष काम नहीं है।"
धनंजय ने हंसकर कहा-"महाराज ! आप निश्चिन्त रहें.''आपने मुझे मित्र जो कहा है, इसलिए
"ओह !" कहकर श्रेणिक ने उसके कंधे पर हाथ रखा। दोनों राजभवन में गये।
महाराज शय्या पर पड़े थे। उनकी प्रचंड काया शीर्ण हो गई थी। शय्या के पास ही एक आसन पर महादेवी बैठी थी। रानी त्रैलोक्यसुन्दरी को अभी तक ज्ञात नहीं था कि बिंबिसार आने वाला है या आ गया है। • कक्ष में पहुंचते ही बिबिसार सीधा पिताजी की शैय्या के पास गया और पिता के चरणों में शीश झुकाकर बोला-"महाराज !" __"ओह श्रेणिक'''आ बेटा आ'''तू कब आया ?"