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अलबेली आम्रपाली २०३ माविका दूर बैठी थी। गीत पूरा हुआ। वीणा पर क्रीड़ा करने वाली बिंबिसार की अंगुलियों ने विराम लिया और पति में तन्मय बनी हुई आम्रपाली स्वामी से लिपट गई थी। माविका ने मुंह मोड़ लिया था । आम्रपाली ने प्रश्न किया था-"प्रिय ! मेरी आशाओं के आप ही आश्रय हैं। कभी-कभी मन में विचार आता है कि यदि कभी आश्रय दूर हो जाएगा तो मेरा क्या होगा ?" __ बिबिसार ने माध्विका बैठी है, ऐसा संकेत करते हुए कहा था-"पाली ! क्षत्रिय का पुत्र हूं । कुछ पुरुषार्थ करने के लिए जाना पड़े तो वियुक्त भी होना पड़ेगा। परन्तु तुम्हारी ये मधुर स्मृतियां मेरे स्मृति-पटल से कभी विचलित नहीं होंगी । तुम्हारा आश्रय सदा तुम्हारा ही रहेगा। जो यह बन्धन जन्म-जन्मान्तर का है तो अगले जन्म में भी हम विलग नहीं होंगे।"
इस कथन पर अभी काल के विशेष बादल नहीं छाए थे । केवल एक चातुर्मास ही बीता था और बिबिसार सब कुछ भूलकर नंदा को सर्वस्व दे बैठा था।
बहुत बार स्मृतियां दब जाती हैं तो बहुत बार मन पलट जाता है ।
विगत एकाध महीने से बिबिसार अवशिष्ट तेजंतुरी से स्वर्ण के निर्माण में लग गया था। धनदत्त सेठ नहीं चाहते थे, परन्तु बिंबिसार का आग्रह था कि स्वर्ण होगा तो काम ही आएगा।
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी । धनंजय उज्जयिनी आ पहुंचा और उसी पांथशाला में गया जहां उसने युवराजश्री को छोड़ा था।
पूछताछ करने पर उसे ज्ञात हुआ कि जयकीर्ति को यहां से गए बहुत समय बीत गया है और दामोदर धनदत्त सेठ के यहां नौकरी करता है । जयकीर्ति के विषय में वह अधिक जानता है।
धनदत्त सेठ की दुकान बहुत प्रसिद्ध हो चुकी थी और स्वर्ण के सौदे के पश्चात् सेठ का ठाट-बाट पूर्ववत् हो गया था । धनंजय सरलता से वहां पहुंच गया और गद्दी पर बैठे वृद्ध सेठ को नमस्कार कर बोला-"धनदत्त सेठ की दुकान।"
"मेरा नाम है धनदत्त 'आओ 'क्या काम है ?" "आपके यहां दामोदर नाम का एक व्यक्ति रहता है ?" "हां, दामू से ही काम है।" "हां, आप कृपा कर उसे।" तत्काल सेठ ने दूसरे सेवक से कहा- "जा, दामू को बुला ला।"
बिंबिसार और दामोदर-दोनों भवन के अन्तरगृह में स्वर्ण का निर्माण कर रहे थे।
अर्धघटिका के बाद दामोदर आया। धनंजय ने उसको तत्काल पहचान लिया। दामोदर निकट आया। धनंजय ने पूछा- "मुझे पहचाना नहीं ?"