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अलबेली आम्रपाली २७७
"माधु ! पुरुष नारी के समर्पण की भाषा को नहीं समझता। वह उस समर्पण को औपचारिक मात्र मानता है । उसे क्या पता, नारी समर्पण की प्रतिमूर्ति होती है। उसके समर्पण में विनिमय नहीं होता। उसमें माया नहीं होती। उसमें होता है स्वच्छ हृदय का प्रतिबिम्ब । स्वयं के हृदय से उद्भूत होकर उसमें विलीन हो जाता है, जहां उसके विलय का मान होता है । परन्तु पुरुष उसे नहीं पहचानता । वह स्वयं छली होता है और सर्वत्र छल ही देखता है। वाह रे पुरुष... पामर पुरुष 'मायावी पुरुष!"
_ "देवि ! यह यथार्थ है । पर कहीं इसका अपवाद भी होता है। युवराजश्री इसके अपवाद हैं । उन्होंने समर्पण के मूल्य को आंका है और आज भी वे इसी समर्पण की स्मृति में जी रहे हैं।" ___ आम्रपाली ने हंसते-हंसते कहा- "सखि ! जिसको समर्पण के अवमूल्यन से उत्पन्न व्यथा का अनुभव नहीं, उसको कल्पना कहां से आये कोई बात नहीं, मेरे में व्यथा को पी जाने का साहस भी है।"
"यह साहस तो रखना ही होगा। अगले सप्ताह से ही नृत्य को आरंभ करना होगा । अनेक आगंतुकों से मिलना-भिटना होगा। गणनायक की प्रार्थना तो आपने सुनी ही होगी?
"हां, जनपदकल्याणी को अपना कार्य करना ही होगा। आम्रपाली मर जाएगी, परन्तु जनपदकल्याणी जीवित ही रहेगी।" आम्रपाली ने कहा।
और दूसरे ही सप्ताह उसके चरण नृत्यभूमि पर थिरकने लगे। __ लोग तो देखकर अवाक रह गए थे। वही यौवन, वही छटा और वही रूम ! वही तेज रेखा और वही मस्ती !
अनेक लोगों को तो यही प्रतीत हुआ कि देवी आम्रपाली माता बनी ही नहीं। यदि वह माता बनी होती तो शरीर का यह सौष्ठव कदापि नहीं रहता।
बिबिसार का प्रत्युत्तर प्राप्त हुए एकाध महीना बीत गया, किन्तु आम्रपाली ने पुनः पत्र-लेखन का साहस नहीं किया। उसके मन में बार-बार इच्छा उभरती, परन्तु नारी-सुलभ अभिमान की विजय होती और उसकी वह भावना दब जाती।
आम्रपाली ने मेरेय पीना प्रारंम्भ किया था। वह केवल रात्रि में ही मैरेय पीती, क्योंकि मेरेय के नशे में प्रियतम के वियोग तथा अन्य कारणों से उत्पन्न व्यथा विस्मृत हो जाती।
परन्तु मैरेय का नशा व्यथा को बढ़ाता है। जिन सुखद स्मरणों से वह दूर रहना चाहती थी, वे सारे स्मरण उस सुखद अवस्था में उभरते और वह आत्मविभोर होकर निद्राधीन बन जाती।
माध्विका को यह भय था कि देवी युवराजश्री को भूलकर किसी अन्य पुरुष को अपना यौवन समर्पित न कर दें? यह भय स्वाभाविक भी था। परन्तु