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अलबेली आम्रपाली २५७
मंत्री सोना खरीदना चाहते हैं । हम उन्हें सोना दे सकें, उस स्थिति में नहीं हैं । इसलिए वहां जाकर क्या करना है ?"
"नहीं, सेठजी ! निमंत्रण मिला है तो जाना अवश्य है ।"
सेठ ने हंसकर कहा - " तो तुम ही चले जाना।"
"मैं जाऊंगा, पर आपका प्रतिनिधि बनकर । आप मुझे प्रतिनिधि-पत्र अवश्य लिखकर दे दें।" बिबिसार बोला ।
" अच्छा ।" सेठ ने कहा ।
और दोनों गोदाम से बाहर निकले ।
५३. स्वर्ण का सौदा
दिन का प्रथम प्रहर बीत गया था। राजभवन के विशाल खंड में नगरी के विशिष्ट व्यापारी, सार्थवाह और जोहरी विविध रंगों की पोशाकों में उपस्थित थे । सभी के वस्त्र उत्तम और सभी विविध प्रकार के रत्नजटित अलंकारों को धारण किए हुए थे ।
बिबिसार भी धनदत्त सेठ का प्रतिनिधि बनकर, मालवीय पोशाक धारण कर वहां आया था। उस खंड के द्वार पर खड़े एक राजपुरुष ने उसके परिचय पत्र को देखा और उसे अंदर प्रविष्टि दी । वह सभी व्यापारियों के साथ जाकर बैठ गया । बिसार का चेहरा अत्यन्त भव्य था । उसके नयन तेजस्वी थे और काया आकर्षक थी । उसके सिर पर पीले रंग की मालवीय पगडी उसके व्यक्तित्व को उभार रही थी ।
अन्य श्रीमन्त व्यापारियों की भांति उसके गले में बहुमूल्य मालाएं नहीं थीं फिर भी उसका व्यक्तित्व आकर्षक लग रहा था । अनेक व्यापारी उसका परिचय पूछते । वह कहता - " मैं धनदत्त सेठ का मुनीम हूं। मेरा नाम जयकीर्ति है । " राजा का कोषाध्यक्ष और दो मंत्री आ गये थे। पहुंच गए थे। सभी मुख्यमंत्री की प्रतीक्षा कर रहे थे ।
सभी निमंत्रित व्यापारी
कुछ काल पूर्व तक धनदत्त सेठ का राज्य-संबंध बहुत अच्छा था । राजा को जो भी माल आवश्यक होता, सेठ धनदत्त उसकी पूर्ति करता था । परन्तु कुछेक महीनों से परिस्थिति बदली और सेठ धनदत्त विपन्न अवस्था में चला गया । फिर भी राज्य में मुख्य व्यापारियों के नामों में धनदत्त का नाम सबसे अग्र था । और इसलिए उन्हें निमंत्रण मिल जाया करता था । इसके सिवाय मुख्यमंत्री सेठ के परम मित्र भी थे ।
महामंत्री के आगमन की सूचना मिली । सभी व्यापारी खड़े हो गये ।