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२५२ अलबेली आम्रपाली
पांथशाला के पास एक सार्वजनिक भोजनालय है' बिंबिसार ने कहा । "भोजनालय में अब नहीं चल सकेगा । यहीं भोजन करना है । यहीं रहना है और काम करना है । मेरा भवन बहुत बड़ा है। मुझे भी बड़ा आराम मिलेगा. पुत्र के वियोग में तड़पते हृदय को कुछ आश्वासन मिलेगा ।"
यह तो ऐसी बात थी कि रोगी ने जैसा चाहा वंद्य ने वैसा ही कह दिया । नयनों में बसने वाली सुन्दरी के सहवास में रहने का, उसके हाथ के भोजन का और उसकी मदभरी दृष्टि के सत्कार का ऐसा सुयोग कहां से मिलेगा ? वह बोला-'सेठजी ! आपने मेरे पर कृपा की, यही बहुत है । मेरा पुण्योदय है । आपके यहां काम करूंगा, किन्तु पांथशाला में रहने में मुझे कोई अड़चन नहीं है । " "नहीं, जयकीर्ति ! पांथशाला में तो दो-चार दिन रहा जा सकता है। वहां जीवनभर नहीं रहा जाता। मैं अभी अपने सेवक को भेजता हूं। तुम अपना सारा सामान लेकर यहीं आ जाओ ।"
सेठ ने भोजन सम्पन्न कर हाथ धोए ।
इतने में ही नंदा आकर बोली - "बापू ! कितनी उतावल की। अभी सूर्यास्त कहां हुआ है ? आपकी उतावल के कारण
...")
सेठ ने हंसते हुए कहा- "नहीं, बेटी! अब जयकीर्ति अपने घर का अतिथि नहीं है । वह तो अपने ही परिवार का एक सदस्य है ।"
नंदा ने जयकीर्ति की ओर देखा । जयकीर्ति की दृष्टि नीची थी। उसने भी भोजन कर लिया था ।
कुछ समय वहां रुककर सेठ और जयकीर्ति दोनों दुकान पर आए । जयकीर्ति ने कहा - " सेठजी ! कल प्रातः पांथशाला से मैं यहां आ जाऊंगा । मेरे साथ एक अश्व भी है ।"
"अश्व है तो क्या ? मेरे भवन में सारी सुविधाएं हैं ।" धनदत्त ने कहा । कुछ समय बाद बिंबिसार वहां से चला और पांथशाला में पहुंचकर दामोदर से बोला - "दामू ! कल प्रातः मुझे अन्यत्र कहीं जाना पड़ सकता है." " किन्तु श्रीमन् ! कल तो आप कहीं नहीं आ-जा सकेंगे ।" "क्यों ?"
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"अभी-अभी देवी कामप्रभा की दासी आयी थी और कल सायं वह आपको लेने स्वयं आएगी, ऐसा कहकर गयी है ।"
बिबिसार बोला - " दामू ! मैं कल रुक सकूं, ऐसी सम्भावना नहीं है " परन्तु तू घबराना मत । तुझे यहीं रहना है और जब धनंजय आए उसे रोके रखना है । मैं यदा-कदा यहां आता रहूंगा तुझे अपना वेतन मिलता रहेगा ।”
दामोदर स्थिर होकर बिंबिसार को देखता रहा ।
रात्रि में बिंबिसार ने देवी आम्रपाली के नाम एक पत्र लिखा । उसमें नंदा से