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२३६ अलबेली आम्रपाली
हुए कृष्णघाट पर आ पहुंचे। किनारे पर खड़े एक ब्राह्मण ने बिंबिसार का हाथ पकड़ा ।
बिबिसार बहुत थक चुके थे। फिर भी उन्होंने वृद्धा के अकड़े हुए शरीर को लोगों को सौंप स्वयं किनारे पर आ गए।
वृद्धा की काया में प्राण-संचरण अभी भी हो रहा था । वह बेहोश थी। दोचार व्यक्ति वृद्धा के पेट में भरे पानी को निकालने की चेष्टा करने लगे ।
fafaमार का सेवक दामोदर चन्द्रघाट से दौड़ता हुआ इधर आ रहा था। रूप, यौवन और कला की रानी कामप्रभा एक ध्यान से कृष्णघाट की ओर देख रही थी । किन्तु वह तरुण दिखाई नहीं दे रहा था ।
बिबिसार घाट के अन्तिम सोपान पर बैठ गए थे। उनके आसपास चारछह व्यक्ति खड़े थे और बिंबिसार की स्वर्णिम काया को मसल रहे थे ।
इधर बृद्धा ने आंखें खोलीं। उसने चारों ओर देखा. जिस घाट पर वह लड़खड़ा कर गिर पड़ी थी वहां से चलकर साथ वाली स्त्रियां इस कृष्णघाट पर आ पहुंचीं।
वृद्धा साठ वर्ष की थी उसका जीवन-दीप बुझते-बुझते जल उठा था । fafaसार स्वस्थ हो गए । वे खड़े हुए। लोग उनका परिचय पाने के लिए उतावले हो रहे थे ।
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बिंबिसार बोले - "मेरा नाम जयकीति है मैं मगध का वणिक हूं यहां व्यवसाय करने आया हूं ।"
दामोदर वहां आ चुका था ।
वर्षा हो रही थी । उसका वेग धीमा पड़ गया था किन्तु वस्त्रों को बदला जा सके वैसा स्थान नहीं था ।
बिबिसार ने दामोदर से कहा - " दामू ! चल, हम सामने वाले शिवालय में चलें ।"
दोनों वहां से चल पड़े ।
दामोदर के हाथ में छत्र था "
...किंतु बिंबिसार ने छत्र का प्रयोग नहीं
किया । वे तो स्वयं पूरे भीग चुके थे ।
चंद्रघाट पर खड़ी कामप्रभा ने अपनी मुख्य परिचारिका को बुलाकर कहा" प्रीति ! आज सायं तू पूर्वीय पांथशाला में जाना और जयकीर्ति को बुला
लाना । उसके साहस को मैं पुरस्कृत करना चाहती हूं ।"
"जी ।"
' कहकर प्रीति ने मस्तक नमाया ।
फिर कामप्रभा ने सिप्रा के किनारे स्नान किया । स्नान करते समय उसका मन उस नौजवान की सशक्त काया में उलझ गया था ।