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अलबेली आम्रपाली १६३
भवन में पहुंचते ही वह अन्यत्र न जाकर सीधी स्नानगृह में चली गई । जब कभी भी वह स्नान करने जाती तब कोई भी परिचारिका वहां नहीं रह सकती थी ।
तैल-मर्दन, उबटन, स्नान, अंगप्रोंछन आदि सभी क्रियाएं वह स्वयं करती । पहने हुए सभी वस्त्र वह स्वयं अपने हाथों से धोती । वह सभी अलंकार निकालकर जल से भरे पात्र में रख देती।
यह सावचेती उसके लिए अत्यन्त आवश्यक थी। क्योंकि वह चाहती थी कि भवन की दास-दासियां भी यह जानने न पाएं कि वह विषकन्या है। महामंत्री ने यह सावधानी बरतने के लिए कहा था और कादंबिनी इसमें पूर्ण जागरूक थी । स्नानगृह में जाने के पश्चात् उसने सारे अलंकार एक जलपात्र में रखे । उसने सभी वस्त्र पखारे ।
और
स्नानगृह में रखे हुए एक आदमकद दर्पण की ओर उसकी दृष्टि गई ।
यह मानवीय स्वभाव है कि प्रत्येक मनुष्य स्वयं को दूसरों से अधिक सुन्दर मानता है | कादंबिनी पूर्ण यौवन में प्रवेश कर चुकी थी हुई नारी किसी के चरण कमल में यौवन को बिछाने के
उसके प्राणों में उभरती
लिए तड़फड़ा रही थी ।
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परन्तु """
आचार्य अग्निपुत्र का प्रयोग उसके जीवन का अभिशाप बन चुका था । आशा, भावना और ऊर्मियां उसमें उन्मज्जन कर रही थीं। फिर भी वह विषवल्ली बन चुकी थी ।
अरे, वह किसी को चुंबन दान भी नहीं कर सकती थी । इस अभिशाप का अंत कब कैसे होगा ?
कल आधी रात के समय जो बीता, उससे उसका कलेजा कांप उठा । कितना मधुर था वह क्षण ! परन्तु उसकी काया में छिपी हुई अग्नि ने क्षण भर में मधुरता को जलाकर राख कर डाला ।
दर्पण में अपनी निरावरण काया को देखकर कादंबिनी स्नानकार्य को भूल गई। अभिशाप का यह बोझ कब तक ढोना पड़ेगा ?
सुन्दर पुरुष की बात एक ओर रहने दें. परन्तु वह किसी सुन्दर बालक को प्रेम से उठाकर हृदय से भी नहीं लगा सकती थी । उसका चुंबन भी नहीं ले सकती थी ।
उसने सोचा, उसी के पाप का यह कटु विपाक है । पूर्वजन्म में उसने कोई भयंकर पाप किया है । अन्यथा, इस यौवन वय में अपने अन्तःकरण में ऊर्मियों को सुलगती हुई देखने का समय कैसे आता ?
ऊर्मियों को सुलगती देखना, यह वेदना अकथ्य होती है।